शुक्रवार, 30 मार्च 2018

विपक्षियों की सबसे बड़ी समस्या कांग्रेस के समायोजन की है


डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया
   अब यह बात पूरी तरह से स्पष्ट हो गई है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में पूरा विपक्ष मोदी के विरुद्ध ताल ठोकते दिखना चाहता है. निसंदेह आज मोदी जिस मुकाम पर हैं उनसे ईर्ष्या होना स्वाभाविक है. 2014 में मोदी ने देश की विपक्षी पार्टियों को जो धूल चटाई थी उससे उबरने के लिए सारा विपक्ष छटपटा रहा है और यह छटपटाहट विगत एक दो  महीनों से सामने दिखाई भी दे रही है. गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जो प्रदर्शन किया उससे वेंटिलेटर पर पड़ी कांग्रेस में कुछ आशा की किरण जगी. किंतु उत्तर पूर्व के तीन  राज्यों त्रिपुरा, नागालैंड, और मेघालय में भाजपा विरोधियों का जो प्रदर्शन रहा उससे गुजरात में बढ़े कदम पुनः बेकफुट पर आ गए. लेकिन राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के लोकसभा उपचुनाव के नतीजों ने विपक्ष में फिर एक बार जान फूंक दी लग रहा है. इन नतीजों से उत्साहित होकर कांग्रेस और शेष विपक्ष फिर एकजुटता की ओर बढ़ने के लिए आगे आ रहे हैं. 2014 के चुनावों में मोदी के नेतृत्व
में 31 प्रतिशत  मतों के साथ भाजपा गठबंधन को 337 सीटें मिली थीं जिसमें भाजपा अकेली को 283 सीटें प्राप्त हुई थी. भाजपा को उस समय 31 प्रतिशत वोट मिले इसका मतलब यह भी था कि 69 प्रतिशत वोट विपक्ष को मिले. इस आधार पर यह बात स्पष्ट है कि एक तिहाई वोटों के बावजूद भाजपा सरकार बनाने में ना केवल सफल रही बल्कि बड़ा बहुमत प्राप्त किया, जबकि 69 प्रतिशत वोट पाने के बाद भी विपक्ष संसद में उंगलियों पर गिनी जाने वाली संख्या तक सिमट गया. यही एक गणित विपक्ष को एकजुट होने के लिए बाध्य करता है. विपक्ष जान रहा है यदि वह एकजुट नहीं रहा तो आज की स्थिति में मोदी से पार पाना उसके लिए मुश्किल है. लेकिन इस सब के बावजूद विपक्षी एकता कैसे होगी यह अभी स्पष्ट नहीं है. आज विपक्ष के सामने सबसे बड़ी चुनौती यदि कोई है तो वह है कांग्रेस को समायोजित करने की है. कांग्रेस की कमजोर स्थिति शेष विपक्ष को स्वयं के अस्तित्व को बचाने में सबसे बड़ी बाधा लग रही है. कांग्रेस का हाल ‘जहां जहां पैर पड़े संतों के तहं तहं बंटाढार’ वाला है. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव इसका उदाहरण है जहां सपा ने कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और सपा की हालत सम्मानजनक स्थिति पाने से भी महरूम हो गई. स्वाभाविक है कि कांग्रेस के साथ मिलकर शेष विपक्ष किसी तरह का गठबंधन करने से बचना चाहता है. यही कारण है कि तेलंगाना के चंद्रशेखर राव और पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी तीसरे मोर्चे की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. जिस कांग्रेस के साथ मिलकर क्षेत्रीय दल सत्ता में अपनी भागीदारी करते रहे उसी कांग्रेस से देश के क्षेत्रीय दल किनारा करने को मजबूर दिखाई देते हैं. कारण स्पष्ट है कि कांग्रेस अपनी विश्वसनीयता इस हद तक खो चुकी है कि अधिकांश क्षेत्रीय दल उस से हाथ मिलाने की जगह दूरी बनाने में ज्यादा सुरक्षित महसूस कर रहे हैं. गोरखपुर और फूलपुर में बसपा और सपा के समझौते ने इस बात पर ठप्पा लगा दिया कि कांग्रेस को अलग रख कर क्षेत्रीय पार्टियां ज्यादा अच्छा प्रदर्शन कर सकती हैं.
 हालांकि अभी 2019 दूर है लेकिन कांग्रेस की स्थिति विपक्षी एकता में कर्नाटक, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभाओं के चुनाव नतीजों पर निर्भर करेगी. यदि इन राज्यों में कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकी तो कांग्रेस से अलग तीसरा मोर्चा में क्षेत्रीय दल ज्यादा सुविधा महसूस करेंगे. अगर गंभीरता से देखा जाए तो क्षेत्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस पार्टी से ज्यादा परेशान नजर नहीं आते बल्कि उनकी सबसे बड़ी चिंता कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी हैं. कांग्रेस उपाध्यक्ष के रूप में उनका प्रदर्शन क्षेत्रीय दलों की अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा. आज की स्थिति में भी जबकि राहुल गांधी कांग्रेस के पूर्णकालिक अध्यक्ष हैं शेष विपक्षी दल उनके नेतृत्व को स्वीकारने में असुविधा महसूस कर रहा है. जबकि कांग्रेस की यह बड़ी इच्छा है कि मोदी विरोधी देश के सभी विपक्षी दल राहुल में विश्वास व्यक्त करें. तीसरे मोर्चे के विगत 3 दिनों के प्रयासों से यह स्पष्ट हो चुका है कि ममता सहित अन्य विपक्षी दल राहुल गांधी की उपेक्षा कर रहे हैं. यही कारण है कि ममता ने सोनिया गाँधी से तो भेंट की किंतु राहुल गांधी को दरकिनार किया. ममता का तीसरे मोर्चे के प्रस्ताव में वन टू वन  फारमूला अर्थात भाजपा के प्रत्याशी के विरुद्ध सभी विपक्षी दलों का एक ही प्रत्याशी चुनाव लड़े कितनी सफलता पाता है देखने योग्य होगा. अभी तो गोरखपुर और फूलपुर में सपा-बसपा की एकजुटता से प्राप्त जीत के परिणामों के बावजूद उत्तर प्रदेश में कैराना लोकसभा और नूरपुर विधानसभा के उपचुनाव में बसपा ने सपा को समर्थन से अपना हाथ खींच लिया है. बसपा इन दोनों उपचुनावों में सपा का समर्थन नहीं करेगी. इसका एकमात्र कारण यही है कि कोई भी क्षेत्रीय दल मतदाताओं में अपनी पकड़ कमजोर होते नहीं देखना चाहता. स्वाभाविक है कि वन टू वन  का फार्मूला क्षेत्रीय दलों की स्थिति को मजबूत कर सकता है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को कमजोर करने वाला ही होगा. क्योंकि आज देश में कांग्रेस पार्टी पूरी तरह सिकुड़ गई है. देश के कई भागों में कांग्रेस की तुलना में क्षेत्रीय दलों का प्रदर्शन ज्यादा अच्छा है तब ऐसी स्थिति में कांग्रेस वन टू वन  फार्मूले के साथ खड़ी होगी इसकी संभावना अभी तो दूर-दूर तक नजर नहीं आती. इसका सीधा अर्थ यही होगा कि यदि कांग्रेस इसे स्वीकार नहीं करती है तो मुकाबला फिर त्रिकोणीय या अधिक   होगा जिसका सीधा फायदा भाजपा को मिलेगा. वहीं अगर इस बात पर विचार किया जाए कि विपक्षियों में एकता हो ही गई तो जनता में यह संदेश जाना तय है कि सारे विपक्षी दल मोदी को मिलकर हराना चाहते हैं जिसका लाभ भाजपा को मिलेगा.
 आज की स्थिति में मोदी ने देश में जिस राष्ट्रीयता और हिंदुत्व की भावना का प्रसार किया है वह आज से पहले तक इतनी तीव्र नहीं रही. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोदी सरकार ने भारत को जो प्रतिष्ठा दिलाई है वह किसी से छिपी नहीं है. विदेश नीति में भारत ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो सफलता पाई है वह अकल्पनीय है. आतंकवाद और आतंकवादी देश पाकिस्तान को जिस तरह विश्व में मोदी ने अलग-थलग किया है वह समूचा विश्व जानता है. यही नहीं मोदी सरकार ने जहां एक और सेना के मनोबल को बढ़ाने का काम किया है वहीं देश की सुरक्षा के साजो-सामान में जो वृद्धि हुई है उसका कोई मुकाबला नहीं. यही नहीं मोदी सरकार ने आर्थिक मोर्चे पर भी भारत की स्थिति को मजबूत किया है. भ्रष्टाचार जैसे नासूर पर कड़ा रुख अपना कर मोदी ने देशवासियों को अच्छा संदेश दिया है. ऐसे अनेक कारण हैं जो मोदी के पक्ष में जाते हैं. ऐसी स्थिति में जनता में यह संदेश जाना तय है कि मोदी का विरोध विपक्षी दलों के स्वार्थ का परिणाम है ना कि देश हित  का. तब जनता का समर्थन मोदी को सफल बनाने में सक्षम होगा. ऐसी स्थिति में विपक्षी एकता भी मोदी की लोकप्रियता के चलते धरी रह सकती है. आज की स्थिति में क्षेत्रीय दलों की तुलना में कांग्रेस की स्थिति ज्यादा कमजोर इसलिए हो रही है कि उसने देश को जाति, धर्म, वर्ग, समुदाय, दलित और पिछडों में बांटने का रास्ता चुना है. यह रास्ता क्षेत्रीय दलों को तो मुफीद है किंतु कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल को लाभ पहुंचाएगा इसकी संभावना कम प्रतीत होती है.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें