डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया
2019 के चुनाव देश की राजनीति में बहुत अहम होते
जा रहे हैं. एक तरफ देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अपने अस्तित्व की रक्षा के
लिए जूझने जा रही है तो कई स्वयंभू छत्रपों की क्षेत्रीय पार्टियां भी अपनी
प्रासंगिकता की रक्षा के लिए रास्ते खोज रही हैं. यही कारण है कि अब तक मुस्लिम,
अल्पसंख्यक, जातिवाद, परिवारवाद एवं दलित की राजनीति करने वाली तथाकथित
धर्मनिरपेक्ष पार्टियां ना ना करते हुए भी एक जाजम पर बैठने को आतुर दिखाई दे रही हैं.
हालांकि यह अभी भविष्य के गर्त में है कि इन पार्टियों के बीच समझौते का आधार क्या
होगा और कितनी पार्टियां किस पार्टी के किस राजनेता की अगुआई स्वीकार करेंगी.
लेकिन एक बात साफ है कि मोदी और भाजपा को सत्ता से हटाने के लिए सब के सब बेताब
हैं.
जहां तक क्षेत्रीय पार्टियों की बात है तो इनमें
से अधिकांश की राजनीति अपने अपने राज्य में अपनी सत्ता बचाए रखने या सत्ता पाने तक
सीमित रहती है किंतु गठबंधन राजनीति में और संसद में उनके प्रतिनिधियों की संख्या
का महत्व किसी से छिपा नहीं है. इसलिए क्षेत्रीय दलों के जहां एक और क्षेत्रीय हित
होते हैं वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय राजनीति में उनकी भूमिका भी अहम हो जाती है. जब
से गठबंधन राजनीति का उदय हुआ है तब से क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का महत्व न केवल
बढ़ गया है बल्कि अपरिहार्य भी होता जा रहा है. वहीं यह क्षेत्रीय पार्टियां जाति
और वर्ग की राजनीति कर उनके तुष्टिकरण में अपना हित समझती हैं. देश में कई दलों की
राजनीति इसके उदाहरण हैं. उत्तर हो या दक्षिण, पूर्व हो या पश्चिम हर क्षेत्र में
वर्तमान क्षेत्रीय दल जातिवाद, परिवारवाद, वर्ग, धर्म, दलित, पिछड़ों और
अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की राजनीति से जुड़े हुए हैं. यह सबसे बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस की देन है जिसने अपनी
पार्टी के मतदाताओं को इनटेक्ट बनाए रखने के लिए इन छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों को मान्यता दिलाने का
काम किया जिसका परिणाम आज वह खुद भुगतते हुए सिकुड़ती चली जा रही है.
‘देश के संसाधनों पर सबसे पहला हक मुस्लिम वर्ग
का है’ कहने वाली कांग्रेस ने अपनी चाल चरित्र और चेहरा पिछले गुजरात विधानसभा
चुनावों में बदलने का प्रयत्न किया. पार्टी ने मुस्लिम तुष्टिकरण के अपने एजेंडे
में बदलाव करते हुए हिंदुओं को आकर्षित करने के लिए राहुल गांधी को ‘जनेऊ धारी
हिंदू’ बनने को मजबूर किया. जाहिर है कांग्रेस की सोच इस बिंदु पर आकर खड़ी हो गई
कि हिंदुओं को साधे बगैर अब भाजपा और नरेंद्र मोदी की काट संभव नहीं है. यही कारण
था कि राहुल गांधी ने मंदिरों में माथा टेका, माथे पर चंदन लगवाया और कोशिश की गई
कि हिंदुओं में उसके जनाधार में बढ़ोतरी हो और उसका थोड़ा बहुत लाभ भी मिला कि
पार्टी ने गुजरात में अच्छा प्रदर्शन करते हुए मोदी को कड़ी टक्कर दी. लेकिन
कांग्रेस की इस रणनीति का आने वाले विधानसभा चुनावों और लोकसभा में कितना असर होगा
यह देखने वाली बात होगी.
इसमें कोई शक नहीं कि मोदी की अगुवाई में भाजपा
ने 2014 में देश में
हिंदुओं को एकजुट करने और अपने पक्ष में मतदान कराने में सफलता पाई थी. स्वाभाविक
है कि इस का इतना गहरा असर हुआ कि देश की कांग्रेस सहित छोटी बड़ी पार्टियां चारों
खाने चित हो गईं. यही नहीं 2014 के बाद जितने भी विधानसभा चुनाव हुए उनमें भाजपानीत एनडीए ने न
केवल जीत दर्ज की बल्कि कई ऐसे राज्यों में सरकारें बनाई जहां पहले कांग्रेस की
सरकार हुआ करती थी. यही नहीं उत्तर पूर्व के राज्यों में धमाकेदार जीत दर्ज कर असम,
त्रिपुरा, नागालैंड, अरुणाचलप्रदेश और मेघालय जैसे राज्यों में भगवा रंग का प्रसार
हुआ. आज देश के 68% भाग पर भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों की सरकारें हैं. जो इस बात की और स्पष्ट संकेत करती हैं कि
जनता में भाजपा के प्रति विश्वास का ग्राफ अचंभित करने वाले स्तर तक पहुंच गया है.
यही कारण है कि देश की भाजपा और मोदी विरोधी राजनीतिक पार्टियां अब हिंदुओं की
एकजुटता में पलीता लगाने की नई नई रणनीतियों पर चल रही हैं. जिसमें हिंदुओं की
एकजुटता को तोड़ने की रणनीति सबसे प्रमुख है. इस रणनीति के तहत हिंदुओं को जाति,
वर्ग, संप्रदाय, अगड़े, पिछड़े, अल्पसंख्यक और दलित जैसे टुकड़ों में बांटने की रणनीति
पर काम किया जा रहा है. गुजरात के चुनाव इसका ताजा उदाहरण है जहां कांग्रेस ने यह
जानते हुए भी कि पाटीदारों को संवैधानिक बाध्यताओं के चलते आरक्षण नहीं दिया जा
सकता पाटीदारों को आरक्षण दिलाने का वादा किया. यही नहीं हिंदुओं को भाजपा की
आइडियोलॉजी के प्रभाव से मुक्त करने के लिए मंदिर पॉलिटिक्स की शुरुआत की.
कांग्रेस आज यह अच्छी तरह जानती है कि यदि वह चुनावों में मुस्लिमों का समर्थन
नहीं भी करेगी तो भी मुसलमान हिंदूवादी पार्टी भाजपा को वोट नहीं देंगे. यही कारण
है कि उसने लचीली स्थिति अपनाना शुरू कर दिया है. तेलंगाना और आंध्र प्रदेश जैसे
राज्यों में राहुल मुस्लिम टोपी लगा रहे हैं तो कर्नाटक में श्रृंगेरी मठ में जाकर
पूजा अर्चना कर रहे हैं. कर्नाटक में मंदिर मंदिर जाने का सिलसिला राहुल ने पुनः
शुरू कर दिया है.
कर्नाटक में फिलहाल कांग्रेस की सरकार है और वह
आगामी विधानसभा चुनावों में अपनी जीत के प्रति पूर्णत: आशान्वित नहीं लगती.
क्योंकि भाजपा ने अपने पूर्व मुख्यमंत्री येदुरप्पा के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का
फैसला किया है. येदुरप्पा मूलतः लिंगायत हैं और क्योंकि लिंगायत की संख्या कर्नाटक
में कुल वोटरों की लगभग 21 प्रतिशत है जो कर्नाटक विधानसभा की लगभग 100 सीटों पर प्रभाव
डालते हैं वे येदुरप्पा के साथ जा सकते हैं और जाएंगे ही. यही सोचकर सीतारमैया
सरकार ने हिंदुओं को बांटने का कुचक्र रचा दिया. सीतारमैया ने चुनाव से ठीक पहले रणनीतिक
चाल चलते हुए लिंगायत का अलग धर्म मानने का प्रस्ताव पास कर दिया. यही नहीं
सिद्धारमैया सरकार ने लिंगायत समुदाय को अलग मानकर अल्पसंख्यकों का दर्जा भी दे
दिया. वर्तमान में लिंगायत को अगड़ी जाति माना जाता है. वस्तुतः क्योंकि लिंगायत
समुदाय भाजपा का परंपरागत वोटर है इसी को तोड़ने के लिए सिद्धारमैया सरकार ने
भाजपा वोटों में सेंध
लगाने के लिए यह प्रपंच रचा, जबकि 2013 में मनमोहन सरकार ने लिंगायत का अलग धर्म
मानने से इनकार कर दिया था. वस्तुतः इस रणनीति का मूल आधार यही है कि हिंदू धर्म
को विभाजित कर राजनीतिक लाभ प्राप्त किया जा सके.
2019 के चुनाव के लिए कांग्रेस वस्तुतः डिवाइड
एंड रूल की नीति पर चल पड़ी है. वस्तुतः देश के सभी छोटे बड़े राजनीतिक दल चाहे वह
कांग्रेस हो या माया, ममता, चंद्रबाबू नायडू, अखिलेश, चंद्रशेखर राव और ओवैसी जैसे
लोग राष्ट्रहित के लिए एक नहीं हो रहे हैं बल्कि इन का एक ही एजेंडा है कि कैसे भी
एक राष्ट्रवादी और दिन रात देश के हित चिंतन करने वाले प्रधानमंत्री मोदी को सत्ता
से हटाया जाए. अमेरिकी मूल के लेखक डॉ. डेविड फ्राली ने कहा है कि ‘यह तमाम छोटे
और क्षेत्रीय दल राष्ट्रहित के लिए नहीं बल्कि अस्तित्व को बचाने के लिए मोदी के
खिलाफ एकजुट हो रहे हैं’. देश की जनता भी जान रही है कि आखिर क्यों मोदी
विपक्षियों की आंख की किरकिरी बन गए हैं. अब यह भारत की जनता को तय करना है कि उसे
देश का हित चाहने वाली भाजपा और राष्ट्रभक्त मोदी चाहिए या फूट डालो राज करो की
नीति पर चलने वाली कांग्रेस और स्वार्थी परिवारवादी क्षेत्रीय दलों की सरकारें
चाहिए. सोचें, विचार करें और निर्णय करें कि हमें देश को विभाजित कर राजनीतिक
स्वार्थ पूर्ति करने, देश को तोड़ने वालों के साथ जाना चाहिए या देश को जोड़ते हुए
भारत को विश्व स्तर पर अपना लोहा मनवाने वालों के साथ जाना चाहिए.
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