डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया
निसंदेह उत्तर प्रदेश के उपचुनाव भाजपा के लिए अच्छे संकेत नहीं
हैं. फूलपुर और गोरखपुर में सपा के दोनों उम्मीदवारों की जीत यह स्पष्ट करती है कि
चुनाव प्रचार में मोदी की अनुपस्थिति भाजपा को हमेशा दुखदाई ही रहेगी. लेकिन दूसरी
ओर देखा जाए तो यह उन दो व्यक्तियों, योगी आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्य की हार
है जो वर्तमान में सूबे के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री हैं. स्वाभाविक है कि
इतने बड़े पदों पर बैठे यह राजनेता अपने संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में जीत नहीं
दोहरा सके. लेकिन यह हार कोई ऐसी हार नहीं जिसे 2019 में जीत में ना बदला जा सके. वस्तुतः 1 साल से भी कम समय के
लिए हुए यह उपचुनाव बहुत कुछ कहते दिख रहे हैं. विपक्ष आज बहुत उत्साहित है, उसे
लग रहा है कि उपचुनावों में बिहार उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में उसकी जीत ने 2019 के दरवाजे
उसके लिए खोल दिए हैं. लेकिन यह केवल दिवास्वप्न ही लगता है.
उत्तर प्रदेश में सपा की जीत अप्रत्याशित ही
मानी जाएगी. धुर विरोधी राजनीतिक दलों बसपा और सपा का आपसी समझौता और मतदान
प्रतिशत में अकल्पनीय कमी ने सपा को ऑक्सीजन दी है. चुनाव की तारीख के चंद दिनों
पहले बसपा सुप्रीमो बहन मायावती जो कभी सपा को “ गुंडों की पार्टी” कहते नहीं थकते
थीं का सपा को यह कहते हुए समर्थन करना कि ‘हम अपने मतदाताओं को निर्देशित करते
हैं कि वे भाजपा को हराने के लिए दोनों क्षेत्रों में संभावित जीतने वाले
प्रत्याशियों के पक्ष में मतदान करें’ साथ ही उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह भी
कहा था कि ‘यह कोई गठबंधन नहीं है बल्कि आने वाले राज्यसभा के लिए ‘इस हाथ दे उस
हाथ’ ले की रणनीति है. स्पष्ट है कि बहन मायावती सपा को सौदेबाजी कर समर्थन देकर
राज्यसभा की सीट स्वयं के लिए या अपने भाई आनंद के लिए सुरक्षित करना चाहती थीं. (उन्हें
इतनी उम्मीद नहीं थी कि उनका यह समर्थन सपा को जीवन दान दे पाएगा) जिसमें उन्हें
सफलता मिलेगी कि नहीं अभी कहना मुश्किल है. राज्यसभा के गणित के हिसाब से मायावती
आज की स्थिति में बिना सपा के समर्थन के अपना एक व्यक्ति भी राज्यसभा में भेजने की
स्थिति में नहीं हैं. आज की स्थिति में यदि नरेश अग्रवाल का विधायक बेटा यदि भाजपा
के पक्ष में मतदान करता है तो बसपा का राज्यसभा में पहुंचने का सपना धरा का धरा रह
जाएगा.
अगर हम फूलपुर और गोरखपुर के उप चुनाव नतीजों की
बात करें तो यह स्पष्ट है कि वहां क्रमशः 37.4 प्रतिशत और 45 प्रतिशत मतदान हुआ जबकि 2014 के आम चुनाव
में दोनों ही लोकसभा क्षेत्रों में 50 से 55% तक मतदान हुआ था. स्पष्ट है कि कम वोटिंग
के चलते भाजपा को यह नुकसान उठाना पड़ा. इसका स्पष्ट मतलब यह भी है कि भाजपा के
मतदाताओं ने जहां एक ओर उत्साह नहीं दिखाया वहीं दूसरी ओर सपा और बसपा के प्रतिबद्ध
मतदाताओं ने बढ़चढ़कर मतदान में हिस्सा लिया. स्वाभाविक है कि मतदान प्रतिशत में
कमी का कारण भाजपा के प्रचारकों की
उदासीनता रही. इसका परिणाम भाजपा को अपनी हार के रुप में देखना पड़ा. दूसरी ओर सपा
के कुशासन के चलते प्रदेश में स्वच्छंदता प्रेमी जमात बहुत प्रसन्न थी. सपा के राज
में उपद्रवियों, रोड रोमियो, भ्रष्टाचारियों, नकारा पुलिस, गुंडा और असामाजिक तत्वों
की मौज रही थी जिन पर भाजपा की सरकार बनने के बाद सीएम योगी आदित्यनाथ ने नकेल कस
रखी है जिसके चलते अपराध प्रेमी तबका परेशान था जिसको अवसर की तलाश थी कि कैसे भी भाजपा को सबक सिखाया जाए. ऐसे तत्वों ने मिलकर
चुनाव प्रचार में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया जिसका परिणाम भाजपा को हार मिली. सबसे
आश्चर्यजनक तो यह है कि गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ की लोकप्रियता भी काम नहीं आई.
योगी आदित्यनाथ पिछले पांच लोकसभा में क्षेत्र की जनता का सांसद के रूप में
प्रतिनिधित्व करते रहे हैं. यह बहुत विचारणीय और भाजपा के लिए चिंता का कारण है.
यदि देखा जाए तो क्योंकि भाजपा ने 2014 में दोनों ही सीटों पर रिकॉर्ड तोड़ मतों
से जीत हासिल की थी इसलिए उपचुनावों को भाजपा ने बहुत हल्के में लिया. भाजपा का
दोनों सीटों पर जीतने का अति आत्मविश्वास जिसे योगी आदित्यनाथ ने खुद स्वीकारा है,
भाजपा की हार का कारण बना तो वहीँ राजनीतिक विश्लेषकों के मत में भाजपा ने दोनों
सीटों पर जो प्रत्याशी उतारे उनमें योगी आदित्यनाथ ने विशेष रुचि नहीं दिखाई.
लेकिन एक बात तो तय है कि वर्तमान स्थिति में
भाजपा और समूचे विपक्ष के बीच लड़ाई है. दूसरे शब्दों में देश का समूचा विपक्ष एन
केन प्रकारेण मोदी से सत्ता वापस लेना चाहता है जिसके लिए उसे सिद्धांत विहीन
राजनीतिक गठजोड़ करने में भी गुरेज नहीं है. 2019 के चुनावों के लिए इनके बीच गठजोड़ होगा यह
पूरी तरह निश्चित है. सोनिया गांधी की डिनर डिप्लोमेसी इस बात को स्पष्ट करती है
कि अब भाजपा विरोधी दल एकजुट होकर सत्ता के लिए मोदी को चुनौती देंगे. लेकिन इसमें
कोई शक नहीं कि मोदी का डर देश की प्रत्येक विपक्षी पार्टी को है. इसी भय ग्रस्तता
के चलते सब अपने-अपने अहम छोड़ने को बाध्य हो सकते हैं. लेकिन कांग्रेस की स्थिति सबसे
चिंताजनक है. आज की स्थिति में भाजपा विरोधी गैर कांग्रेसी दल भी राहुल गांधी को
स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. क्योंकि राहुल ने आज तक कोई खुश होने जैसा परिणाम
नहीं दिया है. राहुल की विश्वसनीयता गुजरात चुनावों के बाद और अधिक घट गई. गुजरात
चुनावों में उन्होंने हिंदुओं का मसीहा बनने की नौटंकी की जिससे तथाकथित
धर्मनिरपेक्ष पार्टियां उन से दूरी बनाने में अपना भला समझती हैं. यही कारण है कि
तीसरा मोर्चा बनाने की कवायद जारी हो गई है जिस में कांग्रेस का कोई स्थान नहीं है.
तेलंगाना के सीएम के चंद्रशेखर राव के
आव्हान पर ममता और ओवैसी तथा झारखंड के हेमंत सोरेन जैसे लोग उनके साथ सुर में सुर
मिला रहे हैं. इस सब के बावजूद अभी के उप चुनाव से कांग्रेस अति उत्साहित है इसका
कारण यही है कि कांग्रेस जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है दोबारा से मोदी
विरोधियों में अपनी स्थिति खोज रही है. कितनी विडंबना है कि यूपी के दोनों उप
चुनाव में जमानत जप्त करवाने वाली कांग्रेस ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ की
तरह खुशियां मना रही है. सच्चाई तो यह है कि 2014 में मोदी युग शुरू हुआ है जिस पर 2019 में फिर से
मोहर लगेगी लेकिन उसके पहले कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश आदि
राज्यों के चुनाव कुछ संकेत जरूर देंगे.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें