बुधवार, 2 मई 2018

पीढ़ियों को संरक्षित धन सौंपना उन्हें पंगु बनाना है..........


डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया

धर्म आधारित दर्शन मानवमात्र के लिए मार्गदर्शी होने के  साथ वर्तमान समस्याओं के निराकरण में न केवल उपयोगी है बल्कि जीवन को ऐसी नई दिशा की ओर ले जा सकता है जहां व्यक्ति शोक, चिंता, क्लेश, राग और द्वेष आदि से मुक्त हो सकता है. किन्तु वर्तमान जीवन शैली में धर्म के मर्म का कोई स्थान नहीं है ऐसा प्रतीत होता है. यूँ बाह्य रूप से ये दिखाई दे रहा है कि सभी धर्मों के अनुयायी अपने अपने धर्म के प्रति आज ज्यादा संवेदनशील हैं किन्तु यह संवेदनशीलता बहुत हद तक दूसरे के धर्म से अपने धर्म को श्रेष्ठ साबित करने भर तक की है. इसका एक कारण जो प्रतीत होता है वह राजनैतिक लाभ के लिए राजनीतिक दलों की खेमेबाजी भी है तो दूसरा कारण देश की धर्म निरपेक्षता की अवधारणा है जिसने पूरे देश को धर्म के आधार पर बाँटने का काम किया है (क्या ही अच्छा होता कि धर्मनिरपेक्षता के स्थान पर ‘सर्व धर्म समभाव’ का उपयोग किया जाता). कुछ राजनीतिक दल धर्मनिरपेक्षता के आधार पर किसी धर्म विशेष को अपने
खेंमे में बनाये रखने के लिए दूसरे धर्म के अनुयायियों की अनदेखी करते रहते हैं जिसकी वजह से धर्म की मूल भावना नष्ट होकर असहिष्णुता का संचार तीव्र गति से हो रहा है. यूँ अगर देखा जाये तो विश्व के सभी धर्मों में मानवीय कल्याण उभयनिष्ठ है. ऐसा कोई धर्म नहीं जिसमें दया, करुणा, प्रेम, सहिष्णुता, भाईचारा, त्याग , अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह आदि के अनुरूप व्यवहार करने की प्रेरणा न दी गई हो किन्तु यह सब तब संभव है जब व्यक्ति अपने अपने धर्मों के मूल तत्व समझने और उनके अनुरूप व्यवहार करने का व्रत ले. वर्तमान में लोग धर्म के मर्म को समझने के स्थान पर आडंबर और थोथे कर्मकांड के अनुरूप क्रियाकलाप कर यह मान लेते हैं कि वे धार्मिक हैं. मंदिर , मस्जिद और गिरिजाघरों में नियमित रूप से जाना मात्र व्यक्ति को धार्मिक बनाने का उपक्रम बन गया है. जो व्यक्ति धार्मिक स्थलों पर जितनी ज्यादा गतिविधियां कर सकता है वह व्यक्ति उतना ही धार्मिक मना जाता है किन्तु क्या इतने भर से व्यक्ति का या मानवता का कल्याण संभव है? कहने को हर व्यक्ति कहेगा –नहीं, इतने भर से किसी कल्याण की आशा नहीं की जा सकती. किन्तु जब धर्म के मर्म के अनुरूप आचरण की बात की जाये तो व्यक्ति उसे पुरातन और अप्रासांगिक कर उसे ख़ारिज कर देता है. क्या इन स्थितियों में बदलाब होना आज के वक्त की जरूरत नहीं है ? सवाल यह है कि धर्म के मर्म को जाना कैसे जाए. जो पुरानी पीढ़ी है उसे बदलना तो मुश्किल है क्योंकि उसके आचरण में धर्म केवल मान्यता ( रिचुअल ) भर रह गया है किन्तु आने वाली पीढ़ी को धर्म के मर्म को समझाने का प्रयत्न किया जा सकता है जिसे सरकारें बखूबी कर सकती हैं. सभी धर्मों की चुन्निदा शिक्षाओं को यदि पाठ्यक्रमों में स्थान दिया जाए तो बहुत कुछ बदलने की आशा की जा सकती है. किन्तु ऐसा करने के लिए सरकारों में दृढ़ इच्छा शक्ति की जरूरत होगी जो धर्मनिरपेक्षता के नाम पर पीढ़ियों को धर्म को समझने देने से वंचित करती हैं.
आज सबसे ज्यादा प्रासांगिक विषय अपरिग्रह और वैचारिक असहिष्णुता ही हैं जिन्होंने मुझे यह सब लिखने को प्रेरित किया. वस्तुतः अपरिग्रह का मूल आशय अपनी आवश्यकता से अधिक धन संग्रह न करना ही है. किन्तु हो क्या रहा है, हर धर्म की इस शिक्षा के विरुद्ध लोग धनार्जन में स्वयं को खपाए हुए हैं और इस अनवरत होड़ में वे नैतिक और अनैतिक साधनों पर विचार करना भी उचित नहीं समझते. यही कारण है कि देश में भ्रष्टाचार का बोलबाला है. कोलगेट घोटाला , कामनवेल्थ गेम घोटाला , टू-जी घोटाला , टाट्रा ट्रक घोटाला, आदर्श घोटला आदि इसके जीते जागते उदाहरण हैं. किसी व्यक्ति के लिए अपने जीवन काल में कितनी संपदा की आवश्यकता है, उतनी ही ना कि ‘मैं भी भूखा न रहूँ और साधु न भूखा जाए’ , उतनी ही ना कि कोई व्यक्ति अपने परिवार की अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह कर सके और परिवार एवं स्वयं को और अपने सदस्यों को समाजोपयोगी बना सके किन्तु यह  सब आज बेमानी है. हर व्यक्ति आज ज्यादा से ज्यादा धन अर्जित करने में जुटा हुआ है. यह जानते हुए कि उसका जीवन काल निश्चित है. अरबों की संपदा अर्जित करने के बाद भी उसे इस संसार को अलविदा कहना ही होगा किन्तु धनार्जन की होड़ में उसे यह सब समझ नहीं आता. प्रसिद्ध साहित्यकार और चिन्तक डॉ. जयकुमार जलज ने अपने एक लेख में  बाजिब प्रश्न उठाया था कि “क्या हम भावी पीढ़ियों के लिए दौलत जमा करने में नहीं लगे हुए हैं ? क्या हम दूसरों के लिए, भले ही वे हमारे बच्चे हों, उपादान बनने की हमारी कोशिशें नहीं हैं? दूसरों के लिए उपादान बनने की कोशिश भी हिंसा है.” इसमें कोई संदेह नहीं कि आज व्यक्ति अपनों के मोह में इतना जकड़ गया है कि वह अपनों को ही आलसी, निठल्ला , कामचोर , कामी और मतकमाऊ बनाने में जुटा है. निश्चित ही जब तक  यह विचार कि “पूत सपूत तो क्या धन संचय और पूत कपूत तो क्या धन संचय” हमारे जीवन में शामिल नहीं होता तब तक हम दूसरों के उपादान बनते रहेंगे. इसका मतलब यह नहीं कि हम अपने बच्चों के लिए उतने उपादान भी ना बनें कि उनका पालन पोषण और शिक्षा दीक्षा भी न हो पाए किन्तु इतना उपादान भी न बनें कि उन्हें अकर्मण्य ही बना दें. आशय यही है कि अपरिग्रह की अवधारणा को जिया जाये. आज देखने में यह आता है कि अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब होता जा रहा है. इसका एक मात्र कारण धन, धनाड्यों तक केंद्रित है उसका विकेन्द्रीकरण किये जाने की जरूरत है जिसे गाँधी जी के ट्रस्टीशिप द्वारा विकेन्द्रीकृत किया जा सकता है. अपरिग्रह का सिद्धांत उन्हीं लोगों पर लागू होता है जो धन संग्रह में अपने मानवीय और धार्मिक कर्तव्यों की अनदेखी करते हैं. गरीब व्यक्ति के पास तो जीवन यापन तक के उचित साधन नहीं हैं वह अपरिग्रह से मुक्त है. यदि धनाड्य वर्ग अपनों और केवल अपनों का उपादान बनने से परहेज करे तो उनके अपने अजीज स्वयं उपादान बन सकते हैं तभी वह हिंसा से बच सकते हैं. दूसरों के उपादान बनकर आने वाली पीढ़ियों की क्षमताओं को कुंद करना उचित नहीं माना जा सकता. एन-केन प्रकारेण अर्जित कर दूसरों को (भले ही वे अपने क्यों न हों) संरक्षित धन सौंपना उन्हें पंगु बनाना है. धर्म के इस मर्म को समझने की आज बहुत आवश्यकता है. दूसरी बात जो लेखक की प्रभावित करती है वह है वैचारिक सहिष्णुता. निसंदेह विचारों के क्षेत्र में असहिष्णुता ने बौद्धिक क्षेत्र में संघर्ष और कटुता को जन्म दिया है किन्तु विचार एकांगी नहीं होते, उसके कई पक्ष होते हैं और उनके हर पक्षों पर हर एक वैचारिक वर्ग को मीमांसा करने की महती आवश्यकता है. वैसे भी वाद ,प्रतिवाद और संवाद विचारों के महत्वपूर्ण अंग हैं. कोई भी संवाद अपने स्थान पर हमेशा के लिए खड़ा नहीं रह सकता. संवाद बनने की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है जरूरत निश्चित ही उदारता अपनाने की है अपने अलावा दूसरों के पक्षों एवं दृष्टिकोणों का सम्मान करना नितांत आवश्यक है तभी सौहार्दपूर्ण हल संभव है. 

              

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