डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया
कांग्रेस की पूरी कोशिश है कि समूचा विपक्ष
राहुल गांधी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को स्वीकार कर ले वह इसलिए कि
कांग्रेस देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी है, इसलिए कि कांग्रेस के बड़े-बड़े
नेता भी यही चाहते हैं. लेकिन विपक्षी दलों में ना कोई हड़बड़ाहट है और ना नेतृत्व
के लिए राहुल को स्वीकार करने की मजबूरी. जिस कांग्रेस के पास पूरे देश में आज
मात्र मिजोरम, पंजाब, कर्नाटक तथा मेघालय राज्य ही बचे हैं और जिस का जनाधार
सिकुड़कर पतले से भी पतला हो गया है, और जब कि क्षेत्रीय दलों को 2019 में अपनी संभावनाएं
ज्यादा नजर आ रही हों तब समूचा विपक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकार करने में
क्यों रुचि दिखाएगा ?
राहुल गांधी ने कर्नाटक चुनावों के दौरान ही यह
घोषणा की थी कि वह पीएम बनना चाहते हैं तब भी अधिकतर विपक्षी दलों ने इसे एकतरफा
तौर पर नकार दिया था. वैसे तो देश के किसी भी नागरिक का यह लोकतांत्रिक अधिकार है
कि वह देश के किसी भी पद के लिए अपने आप को उम्मीदवार बना सकता है लेकिन यह संभव
नहीं कि वह चुन ही लिया जाएगा. और दलीय राजनीति में इस बात की संभावना तब तक नहीं
होती जब तक की उम्मीदवार का जनाधार अन्य के मुकाबले अधिक ना हो. फिर भी एक पुरानी
पार्टी की यह हसरत है कि उसका नेता देश का प्रधानमंत्री बने तो इसमें बुराई क्या
है ? लेकिन प्रश्न इसी बात का है कि क्या वाकई उस नेता में इतनी काबिलियत है.
गुजरात विधानसभा चुनावों के बाद कांग्रेस के मनोबल में कुछ इजाफा जरूर हुआ.
कांग्रेस ने गुजरात में कड़ी मेहनत कर भाजपा को कड़ी टक्कर देकर अपनी स्थिति में
सुधार किया लेकिन कर्नाटक चुनावों में हुई पराजय ने उसे एक कदम पीछे धकेल दिया. यह
सही है कि कर्नाटक में कांग्रेस की लगभग 80 सीटों की जीत ने उसे सत्ता में रहने योग्य
बनाया किंतु सेहरा तो जेडीएस के सिर पर ही बांधना पड़ा. कर्नाटक के चुनावों के
परिणामों ने यह स्पष्ट कर दिया की जनता कांग्रेस को सत्ता में रहने योग्य नहीं
मानती.
बीते रविवार को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के
निर्णय इस बात की ओर संकेत करते हैं कि कांग्रेस राहुल गांधी को हर मोर्चे पर आगे
रखते हुए 2019 के चुनावों में जाना चाहती है. यही कारण है कि कांग्रेस वर्किंग
कमेटी ने भाजपा से मुकाबले के लिए समान विचारधारा वाली राष्ट्रीय और क्षेत्रीय
पार्टियों से गठबंधन के लिए पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी को अधिकृत किया है. इसके
पीछे की सोच यही है कि विपक्षी गठबंधन के लिए सभी विपक्षी पार्टियां राहुल से बात
करें लेकिन वास्तविकता यह है कि अधिकांश विपक्षी पार्टियां राहुल से कतराती नजर
आती हैं. इस हास्यास्पद स्थिति से पार पाने के लिए ही कांग्रेस कार्यसमिति ने
राहुल को अधिकृत किया है. हकीकत यह है कि देश के अधिकांश विपक्षी दल आज भी राहुल
गांधी में नेतृत्व की क्षमता का अभाव देखते हैं. क्योंकि अब तक के राहुल के
नेतृत्व प्रदर्शन से कोई ऐसा करिश्मा नहीं हुआ जो उल्लेखनीय रहा हो. तो दूसरी तरफ विपक्षी
दल कांग्रेस की नीतियों के कारण भी राहुल के नेतृत्व को स्वीकार कर पाने में असहज
होते दिखाई देते हैं. कांग्रेस ने गुजरात चुनावों में जहां हिंदुओं को अपने पक्ष
में करने के लिए राहुल को मंदिरों में केसरिया चोला ओढ़ने और जनेऊ धारण कराने का
निर्णय लिया तो वहीं कर्नाटक में मुस्लिमों की तुष्टिकरण की नीति पर चलते हुए
दिखाया. इस अस्थिर नीति से विपक्षी दलों में राहुल के प्रति संदेह पैदा हुआ
क्योंकि विपक्षी दल जानते हैं कि 30 प्रतिशत मुसलमानों को खुश करके सत्तर प्रतिशत
हिंदुओं की ना तो उपेक्षा की जा सकती है और ना इस तबके को नाराज किया जा सकता है.
यही नहीं कांग्रेस इस बात पर वर्तमान में ज्यादा संजीदा हो गई लगती है कि वह
मुसलमानों के ज्यादा करीब होकर अधिक अच्छा प्रदर्शन कर सकती है. यही कारण है कि
पिछले दिनों राहुल का यह कथन कि कांग्रेस वस्तुतः मुसलमानों की पार्टी है, ज्यादा
चर्चा में रहा. ऐसी स्थिति में विपक्षी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल राहुल जैसे
अपरिपक्व नेतृत्व को स्वीकार करने में हिचकिचाहट नहीं दिखाएंगे ऐसा कैसे हो सकता
है ? राजनीति का उसूल स्पष्ट बात करने का नहीं होता लेकिन राहुल की नादानी उन्हें
खुद को पीछे धकेलने में अब्बल है. कांग्रेस भले ही चाहे कि देश का समूचा विपक्ष
राहुल का नेतृत्व स्वीकार करे लेकिन आज की राजनीतिक स्थितियों में यह संभव नहीं
लगता.
संसद के मानसून सत्र में तेलुगू देशम पार्टी
द्वारा प्रस्तावित अविश्वास प्रस्ताव पर हुई चर्चा में भी राहुल गांधी ने अपने भाषण
जितने अंक अर्जित किए उससे कई गुना अंक खो दिए. हालांकि आक्रमकता की दृष्टि से
राहुल ने अपने भाषण में जी जान लगा दी लेकिन तथ्यों और प्रमाणों के अभाव में वह आम
जनता का अपने प्रति विश्वास पैदा करने में
असमर्थ रहे. अपने पूरे भाषण के दौरान वह एक ऐसे नेता लगे जो यह दिखाने का प्रयत्न
करता रहा कि उनमें नेतृत्व करने की क्षमता है और उसे स्वीकार किया जाना चाहिए.
पूरे भाषण के दौरान उनके हाव-भाव आक्रमक और अहंकार से भरे रहे. उसका प्रभाव नहीं
लगता कि विपक्षी दलों पर सकारात्मक रहा होगा. उल्लेखनीय यह भी है कि उन्होंने जिन
मुद्दों पर अपने भाषण को केंद्रित किया उन्हें वे अपने ट्वीट्स के माध्यम से
अनेकों बार व्यक्त कर चुके थे. उनके अहंकार की यह पराकाष्ठा ही थी कि उन्होंने
प्रधानमंत्री को यह कहा कि वह उनसे आंख में आंख डालकर बात नहीं कर सकते. आखिर देश
के प्रधानमंत्री ने ऐसा कौन सा अनर्थ कर दिया कि वह आंख में आंख डालकर बात नहीं कर
सकते. इस अहंकारी बयान के बाद राहुल को प्रधानमंत्री के व्यंग - भला एक कामदार
व्यक्ति नामदार व्यक्ति से कैसे आंख मिला सकता है, को सहना पड़ा. यही नहीं राहुल
ने अपने भाषण का अंत जब यह कहकर करते हुए कि ‘भले ही प्रधानमंत्री उनसे नफरत करते हों
लेकिन वे प्रधानमंत्री का आदर और सम्मान करते हैं, राहुल प्रधानमंत्री की आसंदी पर
पहुंचकर प्रधानमंत्री को खड़े होने का बार बार इशारा करने लगे तो उनके भाषण के
पूरे अंक ऋणात्मक हो गए. वास्तव में राहुल ने ऐसा अशोभनीय व्यवहार किया जो संसदीय
इतिहास में कभी नहीं हुआ और इस का पटाक्षेप तो और भी निकृष्ट तब हुआ जब उन्होंने आंख मार कर यह बताने का
प्रयत्न किया की आखिर उन्होंने प्रधानमंत्री को नीचा दिखा ही दिया. वस्तुतः राहुल
गांधी उम्र में भले ही 48 के हो गए हैं लेकिन
परिपक्वता में वह अपरिपक्व ही लगते हैं. इस सब के बाद समूचा विपक्ष उन्हें कैसे
अपना नेता स्वीकार करेगा देखने वाली बात होगी.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें