गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

मध्य प्रदेश : कांग्रेस जीती किंतु भाजपा भी हारी नहीं


         मध्य प्रदेश : कांग्रेस जीती किंतु भाजपा भी हारी नहीं

                      डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया  
       28 नवंबर को रात 1:30 बजे जब मतदान दलों की सामग्री जमा हो रही थी मेरे एक मित्र ने पूछा कि मतदान तो बंपर हुआ है, क्या लगता है- सरकार किसकी बनेगी. एक साधारण समझ से मैंने कहा कि कुछ भी हो 116 सीटों के साथ भाजपा सरकार बना सकती है. उन्होंने कहा कारण- तब मेरा जवाब था कि टक्कर कांटे की नजर आ रही है किंतु भाजपा ने जनकल्याण के इतने कार्य किए हैं कि कुछ भी हो वह सरकार बना लेगी. बात आई गई हो गई.
   11 दिसंबर की सुबह से ही जब मतगणना शुरू हुई लगने लगा कि मतगणना के अंतिम चक्र तक कौन सरकार बनाएगा की स्थिति स्पष्ट होना मुश्किल है. मतगणना में क्रिकेट के 20- 20 मैच की तरह उतार-चढ़ाव आते गए. कभी भाजपा आगे होती तो कभी कांग्रेस आगे हो जाती. ऐसा रोमांच मध्य प्रदेश के चुनावों में आज तक के इतिहास में कभी नहीं रहा. सामान्यता मतगणना के सभी चक्र अधिकतम 2:00 बजे दोपहर तक पूरे होकर स्थिति स्पष्ट हो जाती रही किंतु इस बार के चुनाव में मतगणना अर्धरात्रि के बाद तक चलती रही. और पूरी तस्वीर दूसरे दिन ही स्पष्ट हो सकी कि कांग्रेस ने 114 सीटें और भाजपा ने 109 सीटें जीती. कुल मिलाकर एक हैंग एसेम्बली की स्थिति बनी. दोनों ही बड़े दलों को बहुमत नहीं मिला. लेकिन संख्या बल के आधार पर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी होने और बसपा और सपा के समर्थन से सरकार बनाने की स्थिति में आ गई.
    बात अगर मध्य प्रदेश में मतदान व्यवहार की करें तो इस बार के चुनाव अप्रत्याशित रूप से रोमांचक रहे. मतदान के दिन से मतगणना के अंतिम परिणाम आने तक राजनीतिक पंडित भी यह कहने की स्थिति में नहीं रहे कि किसकी सरकार बनेगी. एग्जिट पोल के नतीजों ने जो रुझान बताया वह भी इतनी स्पष्टता नहीं बता सके. हां यह अनुमान जरूर सही निकला कि भाजपा की स्थिति अच्छी नहीं है. कितनी विचित्र बात है कि 2013 में भाजपा को 38% वोट मिले थे लेकिन उसकी सीटों की संख्या 166 थी वहीं इस चुनाव में उसे 41 % वोट मिलने के बाद भी सीटों की संख्या मात्र 109 रही. वहीं कांग्रेस को भी 40.9% वोट मिले किंतु इसकी सीटें 114 हो गइं. वस्तुतः मध्य प्रदेश में दोनों ही दलों को लगभग बराबर बराबर वोट मिले किंतु कांग्रेस को 0.1% कम वोट मिलने के बाद भी उसकी 5 सीटें अधिक रहीं. अगर हम दोनों पार्टियों में वोटों के अंतर की बात करें तो कांग्रेस को भाजपा से 45,827 वोट कब मिले किंतु उसकी सीटों की संख्या में वृद्धि रही.
 भाजपा की स्थिति ऐसी क्यों हुई अगर हम विश्लेषण करें तो पाते हैं कि निश्चित तौर पर ऐसा कोई कारण नहीं था कि सामान्य से सामान्य स्थिति में भी भाजपा सरकार न बना पाती. भाजपा के 15 वर्षों के और शिवराज के 13 वर्षों के कार्यकाल में मध्यप्रदेश में जितने विकास कार्य हुए इतने मध्य प्रदेश के गठन के बाद कभी नहीं हुए. सड़क, पानी और बिजली जैसी अहम सुविधाओं में अकल्पनीय वृद्धि हुई. शिक्षा स्वास्थ्य की स्थिति इन 15 वर्षों में सुधरी. शिवराज खुद एक किसान होने के कारण उन्होंने किसानों की तकलीफों को कम करने में कोई कमी नहीं रखी. गरीब परिवारों की बेटियों के विवाह कराए, पढ़ने वाली लड़कियों को साइकिल मुहैया कराई, वृद्धावस्था पेंशन और तीर्थ दर्शन की सुविधाएं उपलब्ध कराई. कर्मचारियों को केंद्र के बराबर समय-समय पर महंगाई भत्ता स्वीकृत किया. कर्मचारियों को कुछ अपवादों को छोड़कर छठवां और सातवां वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू किया. विगत 5 साल में प्रदेश में मेडिकल कॉलेजों के खोलने का काम किया. सिंचाई की सुविधाओं में वृद्धि की. आवास विहीन परिवारों को केंद्र की योजना के अनुसार आवासों के निर्माण कराए. प्रदेश में उज्जवला योजना के अंतर्गत परिवारों को गैस कनेक्शन दिए, और बहुत सी ऐसी योजनाएं शुरू कीं जो जन कल्याण के लिए आवश्यक थीं. तब ऐसी स्थिति के बावजूद आखिर क्यों जनता ने उन्हें चौथी बार सरकार बनाने से रोक दिया. यह सवाल हर एक के मन में कौंध रहा है.
    अगर हम गंभीरता से विचार करें तो लगता है कि सबसे बड़ा कारण एंटी इनकंबेंसी रही. किसी पार्टी की सरकार जब अपने तीन कार्यकाल पूरे कर लेती है तो जनता के मन में बदलाव की एक हूक उठती है कि अब कुछ नया होना चाहिए. इस तरह के बदलाव का सबसे बड़ा उदाहरण राजस्थान है जहां पिछले दो दशक से हर 5 साल में जनता सरकार बदल देती है. मध्यप्रदेश में यही कारण रहा कि भाजपा चौथी बार सरकार बनाने में असफल रही.
    दूसरा बड़ा कारण एट्रोसिटी एक्ट पर केंद्र सरकार की एससी- एसटी वर्ग की तुष्टीकरण के कारण हिंदी बेल्ट के प्रदेशों में अगड़ी और पिछड़ी जातियों में असंतोष ने भी सरकार बदलने में बड़ी भूमिका निभाई. सवर्ण जाति के मतदाताओं ने भाजपा को वोट नहीं दिया बल्कि उन्होंने कांग्रेस को वोट दिया या नोटा में दिया. जिसके परिणाम स्वरूप भाजपा सत्ता से बाहर हो गई. मध्यप्रदेश में नोटा के मतों की संख्या 5,42,295 रही जो निश्चित रूप से भाजपा के प्रतिबद्ध मतदाता थे. भाजपा को यद्धपि कांग्रेस से ज्यादा मत मिले और यदि नोटा में गए मत उसे मिल जाते तो कोई कारण नहीं था की वह चौथी बार सरकार नहीं बनाती. निश्चित रूप से एट्रोसिटी एक्ट में केंद्र सरकार द्वारा ऑर्डिनेंस लाना भाजपा को तीनों राज्यों राजस्थान छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में भारी पड़ गया. एट्रोसिटी एक्ट पर ऑर्डिनेंस का कारण मूलतः यही रहा कि भाजपा नेतृत्व अनुसूचित जाति और जनजाति को नाराज नहीं करना चाहती थी. उसका मानना रहा होगा की अगड़ी जाति उनकी मजबूरी समझेगी लेकिन उसके इस कदम ने अगड़ी जातियों में असंतोष पैदा कर दिया. जिसका परिणाम नोटा के रूप में भुगतना पड़ा. तो दूसरी ओर जिस अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग को साधने का प्रयत्न किया गया उसने भी साथ नहीं दिया क्योंकि आजादी के बाद से आज तक उसका सॉफ्ट कॉर्नर हमेशा कांग्रेस की तरफ रहा है. वहीँ सारी सुविधाएं देने के बाद भी प्रदेश का सबसे बड़ा किसान वर्ग भी नीमच गोली कांड के बाद भाजपा से नाराज था. विचित्र बात यह है कि जहां गोली चली वहां नीमच और मंदसौर की सभी सीटें भाजपा ने जीतीं. किंतु वहां के आंदोलन ने प्रदेश के दूसरे हिस्सों के किसानों को प्रभावित किया जहां भाजपा को उनकी नाराजगी झेलना पड़ी. दूसरी तरफ केंद्र सरकार के जीएसटी के कारण छोटे व्यापारियों की नाराजी भी भाजपा की हार का कारण बनी. एक वाक्य में कहा जाए तो सवर्णों, छोटे व्यापारियों और किसानों की नाराजगी ने भाजपा को सत्ता से दूर करने में बड़ी भूमिका निभाई. तो दूसरी ओर कांग्रेस ने अपने प्रचार मे  ऐसी लुभावनी घोषणाएं कीं कि उससे प्रदेश का बड़ा वर्ग किसान और बेरोजगार ज्यादा प्रभावित हुआ. कांग्रेस ने वादा किया कि वह 10 दिन में सरकार बनते ही किसानों का कर्ज माफ कर देगी. किसानों के बिजली बिल आधे कर देगी, पेट्रोल और डीजल के दामों में कटौती करेगी. बेरोजगारों को प्रतिमाह दस हजार रु. देने की भी उसने घोषणा की. कुल मिलाकर इन चुनावों ने कांग्रेस को  संजीवनी दी जिससे उसकी राजनीतिक छबि में उछाल आ गया. कांग्रेस मध्यप्रदेश में जीत जरूर गई लेकिन 15 साल की एंटी इनकंबेंसी के बाद भी भाजपा के मतों में वृद्धि और 109 सीटों का मिलना यह प्रकट करता है कि भाजपा भी हारी नहीं है, वह सत्ता से प्रथक जरूर हो गई है.
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बुधवार, 5 दिसंबर 2018

गुगली फेंकने की बात कर बेनकाब हो गया पाकिस्तान


        गुगली फेंकने की बात कर बेनकाब हो गया पाकिस्तान

                     डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया  
      पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क है जिसकी तुलना उस जानवर से की जा सकती है जिसकी पूंछ 12 साल भी पोंगली में रखी जाए तो भी टेढ़ी की टेढ़ी ही रहती है. पाकिस्तान कभी सुधरेगा इसकी उम्मीद सपने में भी करना बेमानी है. लेकिन यहां यह भी देखने की बात है कि भारत में भी जयचंदों की कमी नहीं जो देश को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ते. करतारपुर साहब गलियारे के निर्माण में भारत सरकार ने जो त्वरित निर्णय लिया वह निर्णय पाकिस्तान के पक्ष में नहीं बल्कि उसका मूल मकसद देश भर के 12 करोड़ सिखों की धार्मिक आस्था के सम्मान का था. देश का सिख समुदाय पाकिस्तान स्थित करतारपुर साहिब के दर्शन करना चाहता है लेकिन सबसे बड़ी समस्या यही रही कि वह उस पाकिस्तान में है जो हमेशा भारत की पीठ में छुरा घोंपता है. भारत पर थोपे गए तीन तीन  युद्ध में पराजय और अपमान झेलने के बाद भी बेशर्मी से अपनी पीठ थपथपाने वाला पाकिस्तान विगत एक सप्ताह में दुनिया भर में बेनकाब हो गया. करतारपुर साहब कॉरिडोर के पाकिस्तान में उद्घाटन समारोह में भारत से केंद्र सरकार के 2 मंत्री हरसिमरत कौर और हरदीप पुरी के साथ ही पंजाब सरकार के कैबिनेट मिनिस्टर नवजोत सिंह सिद्धू भी गए थे. निश्चित तौर पर यह कोई सियासत का मंच नहीं था बल्कि दो देशों के बीच सिख समुदाय की भावनाओं और आस्थाओं को सम्मान देने के लिए उठाए जा रहे कदमों का था. स्वाभाविक था कि भारत के व्यक्तिगत हैसियत से गए इन प्रतिनिधियों को संयमित रहते हुए वापस आना था. हरसिमरत कौर और हरदीप सिंह करतारपुर साहब में प्रार्थना कर वापस आए किंतु दो बार पाकिस्तान गए कांग्रेसी पंजाब सरकार के मंत्री सिद्धू ने ना केवल इमरान के शपथ ग्रहण में समारोह बल्कि कॉरीडोर उद्घाटन में देश का जो अपमान किया उसे पंजाब का सिख समुदाय ही नहीं बल्कि भारत का हर नागरिक कभी नहीं भूलेगा.
    अपनी पहली यात्रा में सिद्धू ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान की तारीफ और आर्मी चीफ जनरल बाजवा को झप्पी देकर यह सिद्ध करने की कोशिश की कि पाकिस्तान के हुक्मरान और सेना ना केवल अमन पसंद है बल्कि वह भारत के साथ अच्छे संबंध चाहते हैं यह तो भारत की मोदी सरकार है जो अपने सियासती  लाभ के लिए पाकिस्तान से दुश्मनी बनाए हुए है. सिद्धू ने दोनों ही दोनों दौरों में दिल  खोलकर इमरान और बाजवा की तारीफ के पुल बांधे. एक पाकिस्तानी पत्रकार को दिए इंटरव्यू में जब सिद्धू से पूछा गया कि ‘आज हर जगह आपकी चर्चा हो रही है इसका क्रेडिट आपको जाता है’ इस पर सिद्धू ने कहा कि ‘इसका क्रेडिट प्रधानमंत्री इमरान और प्रधानमंत्री मोदी को जाता है. लेकिन इसकी पहल हमेशा पाकिस्तान ने की.’ वस्तुतः पूरे इंटरव्यू में वे पाकिस्तान सरकार का  गुणगान करते नजर आए. घटनाक्रम यहीं थम जाता तो शायद कोई बाबेला नहीं बचता मचता किंतु पाकिस्तान के दिमागी दिवालियापन ने उसे विश्व समुदाय के सामने पूरी तरह से बेनकाब कर दिया.
    सिद्धू और कांग्रेस के समर्थक पाकिस्तान ने करतारपुर साहब कॉरिडोर को अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हुए यह प्रचारित करने की कोशिश की कि उसने भारत सरकार को अपने कूटनीतिक जाल में फांस लिया है. इमरान मंत्रिमंडल के मंत्रियों ने डीगें हांक हांक कर यह कहना शुरू कर दिया कि पाकिस्तान ने एक  साल में भारत को बैकफुट पर ला कर खड़ा कर दिया.
     अपने एक बयान में पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कसूरी ने कहा कि ‘ऐतिहासिक करतारपुर गलियारे के शिलान्यास कार्यक्रम में भारत सरकार की मौजूदगी सुनिश्चित करने के लिए प्रधानमंत्री इमरान खान ने एक गुगली फेंकी.’ उन्होंने कश्मीर राग अलापते हुए कहा कि ‘कश्मीर हमारी पॉलिसी का केंद्र रहा है जब तक यह मसला हल नहीं हो जाता तब तक यह हमारे एजेंडे में रहेगा’. सच्चाई तो यह है कि कसूरी मोदी सरकार की कूटनीति को समझने का माद्दा ही नहीं रखते. यह मोदी की कूटनीति ही है जिसने पाकिस्तान को विश्व समुदाय में भिखारी बना दिया. यही नहीं आज पाकिस्तान एक अघोषित आतंकी देश के रूप में जाना जा रहा है. कसूरी को यह जान लेना चाहिए की उनका बयान चूहे को चिंदी मिलने की खुशी में उचक उचक कर सबको बताने भर की कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं.
   किसी भी देश का राष्ट्रपति कभी भी सरकार के कामकाज की सधे शब्दों में समीक्षा करता है किंतु पाकिस्तान के राष्ट्रपति आरिफ अल्वी को भी कॉरिडोर  उद्घाटन घटनाक्रम में पाकिस्तान की इतनी बड़ी जीत नजर आई कि वह अपने शब्दों में संयम नहीं रख पाए. उन्होंने पाकिस्तान के एक चैनल को इंटरव्यू देते हुए कहा कि ‘जिस तरह से शतरंज के खेल में चालें चली जाती हैं वैसे ही चाल पाकिस्तान की ओर से चली गई और पाकिस्तान की चाल में भारत फंस गया है.’ वस्तुतः अल्वी साहब को समझ लेना चाहिए कि मोदी सरकार की चालों  को समझने के लिए बड़ी बुद्धिमत्ता की जरूरत होती है. सतही, उथले और बौद्धिक रूप से कमजोर लोग सात जन्म ले लें तो भी मोदी को समझना मुश्किल है.
     इससे पहले पाक के रेल मंत्री शेख राशिद अहमद ने करतारपुर कॉरिडोर को लेकर विवादित बयान दिया था जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘करतारपुर कॉरिडोर पर पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल बाजवा ने सिद्धू को जो झप्पी लगा कर चाल चली उससे भारत की विदेश नीति पूरी तरह से नेस्तनाबूद हो गई. राशिद साहब भारत की विदेश नीति को आपने समझ लिया होता तो आपको आज कटोरा लेकर भीख नहीं माननी पड़ती. वस्तुतः पाकिस्तान के ये हुक्मरान अपने बयानों से अक्ल के दुश्मन ही नजर आए.
   इन तीनों बयानों से एक बात स्पष्ट हुई की पाकिस्तान की सियासत के इन दिमाग से पैदल लोगों ने अपने दिल में पल रही भारत को नीचा दिखाने की लालसा को व्यक्त किया. ये भूल गए कि वे जो कह रहे हैं उसकी भारत में जो प्रतिक्रिया होगी उसका जवाब उनके पास हो ही नहीं सकता. इन सब बयानों ने पाकिस्तान को पूरी तरह से बेनकाब कर के रख दिया. गुगली वाले बयान पर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहां कि ‘श्रीमान पाकिस्तान विदेश मंत्री आपके द्वारा कही गई गुगली वाली बात आपकी मंशा को पूरी तरह से लोगों के सामने रख रही है. इससे यह भी पता चलता है कि आपकी सरकार को सिखों की भावना की कोई परवाह नहीं है. मैं आपको बताना चाहती हूं कि हम आपकी गुगली में नहीं फंसे हैं. हमारे दो मंत्री करतारपुर साहब सिर्फ इसलिए गए ताकि इस पवित्र गुरुद्वारे में प्रार्थना कर सकें.’ इस बयां के बाद इमरान खान ने कहा कि यह कोई गुगली नहीं थी.
    वस्तुतः पाकिस्तान को जान लेना चाहिए की सिद्धू या कांग्रेस भारत नहीं है. भारत की आत्मा 130 करोड़ लोगों के दिलों में रहती है जो अपने दुश्मन पाकिस्तान को पहचानती है. पाकिस्तान भारत को न गुगली फेंक सकता है, ना शतरंज की चालों में मात दे सकता है और ना झप्पी में फंसा सकता है. यह भी कि देश की जनता सिद्धू जैसे जयचंदों को सबक सिखाना जानती है.


रविवार, 2 दिसंबर 2018

मसखरे सिद्धू कभी संजीदा नहीं हो सकते.....


 मसखरे सिद्धू कभी संजीदा नहीं हो सकते.....
डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया
       दुनिया में शायद ही ऐसा कोई देश होगा जिसके नागरिक या नुमाइंदे अपने देश के दुश्मनों से गले मिलने के लिए आतुर रहते हों, जो देश की विदेश नीति के विरुद्ध दुश्मन देश से व्यक्तिगत हैसियत के नाम पर देश को नीचा दिखाते हैं. लेकिन भारत ऐसा ही देश है जिसके नेता ऐसा करने में कोई लज्जा या शर्म महसूस नहीं करते. दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं होगा जो यह जानता हो  कि भारत और पाकिस्तान के बीच 1947 के बाद से ही कभी ना तो संबंध सामान्य रहे और ना उनके बीच मतभेद कभी कम हुए. आज की दुनिया यह भी जानती है कि पाकिस्तान आतंक को हवा देने वाला देश है और यह भी कि वह भारत में आतंकवादी गतिविधियों के लिए बेनकाब हो चुका है. लेकिन भारत के कतिपय कांग्रेसी नेताओं को यह बात कभी कुबूल ही नहीं हुई.
   हाल के दिनों में पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन के बाद भारत में कांग्रेस के नेता पाकिस्तान में पता नहीं कौन सा सकारात्मक बदलाव देख रहे हैं कि वे पाकिस्तानी हुक्मरानों को दोनों बाहें फैलाकर गले मिलने को बेचैन हुए जा रहे हैं. पिछले 100 दिनों में दो  बार ऐसा हुआ है जिसमें पंजाब के दलबदलू कांग्रेसी नेता नवजोत सिंह सिद्धू ने पाकिस्तान जाकर दुश्मन देश के हुक्मरानों से गले मिलकर भारत की आवाम को नीचा दिखाया है. पहली बार नवजोत सिंह सिद्धू 18 अगस्त 2018 को इमरान खान के प्रधानमंत्री पद के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल हुए थे तब भी यह कहा गया था कि वे पंजाब सरकार के कैबिनेट मिनिस्टर के रूप में नहीं बल्कि व्यक्तिगत हैसियत से अपने क्रिकेट दौर के दोस्त इमरान के शपथ ग्रहण में शामिल हुए थे. बात इतने भर तक की होती कि सिद्धू  कार्यक्रम में शामिल होकर लौट आते तो किसी को शायद कोई एतराज नहीं होता किंतु सिद्धू ने वहां ना केवल उस पाकिस्तानी आर्मी चीफ जनरल बाजवा को गले लगाया जो कश्मीर में आतंकी गतिविधियों को हवा देने के लिए उत्तरदाई है. सिद्धू ने इमरान की तारीफों के पुल बांधते हुए कसीदे पढ़े. यही नहीं उन्होंने तब पाक मीडिया को कहा कि मैं दोस्ती और मोहब्बत का पैगाम लेकर आया हूं. मुझे यहां 100 गुना मोहब्बत मिली. यही नहीं सिद्धू ने कहा जनरल बाजवा शांति चाहते हैं. जिस पाकिस्तान ने हर मौके पर भारत की पीठ में छुरा घोंपा उसका जनरल शांति की बात कर रहा है इससे बड़ा मजाक कोई हो ही नहीं सकता. किंतु जन्मजात कॉमेडियन सिद्धू ने बाजवा को शांतिदूत बना दिया. कितनी विचित्र बात है कि कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा भेजे गए पिछले 11 महीनों में सेना ने 240 आतंकवादियों को 72 हूरों के पास पहुंचाया उसी देश के आर्मी चीफ पर यह विश्वास कैसे कर लिया जाए कि वह शांति चाहते हैं.
वस्तुतः पाकिस्तानी ढोंग को सिद्धू जैसा मसखरा ही सच मान सकता है कोई और नहीं. पिछले सप्ताह भारत सरकार ने करतारपुर साहब कोरीडोर का भारत में शिलान्यास किया जिसके 2 दिन बाद ऐसा ही शिलान्यास पाकिस्तान में इमरान खान ने किया. इस मौके पर भी सिद्धू पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के मना करने के बावजूद पाकिस्तान गए. मान भी लिया जाए कि सिद्धू वहां अपनी धार्मिक आस्था की प्रतिपूर्ति के लिए गए थे लेकिन वहां जाकर उन्होंने देश का जो अपमान किया उसकी शायद ही कोई मिसाल रही होगी. उन्होंने वहां पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान की तारीफ में कसीदे पढ़े उन्होंने कहा मेरा यार दिलदार इमरान खान है और इमरान खान जैसे लोग ही इतिहास रचते हैं. इमरान ने अपने भाषण में यह उम्मीद तो की कि भारत से रिश्ते सुधारने की उनकी मंशा है लेकिन उन्होंने परोक्ष रूप में यह भी स्पष्ट किया कि वे प्रधानमंत्री मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री नहीं देखना चाहते अन्यथा कोई कारण नहीं था कि वह यह कहते कि क्या सिद्धू भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे तभी रिश्ते सुधरेंगे. यही नहीं सिद्धू ने एक बहुत बड़ा प्रज्ञा अपराध कर देश की अस्मिता पर कुठाराघात किया. सिद्धू ने उस खालिस्तानी आतंकी गोपाल सिंह चावला के साथ फोटो खिंचवाया जिस के निकट संबंध आई एस आई और हाफिज सईद जैसे आतंकियों से जगजाहिर हैं. कौन नहीं जानता कि अभी हाल ही में अमृतसर में निरंकारी प्रार्थना स्थल पर हुए ग्रेनेड हमले में 3 लोगों की मौत हुई थी और 19 लोग घायल हुए थे जिसमें खालिस्तानी उग्रवादियों का हाथ था.
 वस्तुतः कैप्टन अमरिंदर सिंह को भी नीचा दिखाने में सिद्धू ने कोई कसर नहीं छोड़ी. कैप्टन अमरिंदर सिंह भारतीय आर्मी में कैप्टन रहे हैं. अन्य कोई मुख्यमंत्री होता तो करतारपुर साहब में मत्था टेकने के नाम पर पाकिस्तान की यात्रा कर आता किंतु अमरिंदर सिंह का स्पष्ट मत है कि जब तक पाकिस्तान आतंकवाद को बढ़ावा देना बंद नहीं करता तब तक वह पाकिस्तान नहीं जाएंगे. यह संकल्प उन्हें दूसरे कांग्रेसियों से अलग करता है जो भारत में रहकर भारत के खिलाफ पाकिस्तान का समर्थन करते हैं. कल तक देश मणिशंकर अय्यर जैसे पाकिस्तान भक्तों को ही जानता था जो पाकिस्तानियों से मोदी को प्रधानमंत्री पद से हटाने में उसकी मदद मांगते हैं लेकिन अब सिद्धू जैसे देश विरोधियों को भी देख रहे हैं जो देश के दुश्मन पाकिस्तान के आर्मी चीफ से ही गले नहीं मिलता बल्कि खालिस्तानी आतंकी गोपाल सिंह चावला के साथ फोटो भी खींचाता है. सच्चाई तो यह है कि सिद्धू ने जितनी चालें चली हैं उनमें उन्हें कांग्रेस आलाकमान का समर्थन मिल रहा है जो वे खुद स्वीकार करते हैं. सिद्धू ने कहा था कि राहुल मेरे कैप्टन हैं  और उनके कहने पर ही मैं पाकिस्तान गया था. यही नहीं वह अमरिंदर सिंह को नीचा दिखाने के लिए कहते हैं, कौन कैप्टन.... अच्छा अमरिंदर सिंह, लेकिन मेरे कैप्टन तो राहुल गांधी हैं और वे कैप्टन के भी कैप्टन हैं.
 जब से इमरान खान ने सिद्धू को चने के झाड़ पर चढ़ाया है तब से सिद्धू पंजाब की राजनीति में कैप्टन अमरिंदर सिंह से स्वयं को बढ़ा मानकर चल रहे हैं. लगता तो यह है की कैप्टन अमरिंदर सिंह की देश भक्ति और पाकिस्तानी आतंकी गतिविधियों पर दो टूक राय रखने के कारण राहुल गांधी भी उन्हें पसंद नहीं करते जिसका फायदा उठाकर सिद्धू मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने की लालसा रखने लगे हैं. और यही कारण है कि वह कैप्टन अमरिंदर सिंह का अपने मसखरी  मिजाज के अनुरूप मजाक उड़ा रहे हैं. सच्चाई तो यह है कि मसखरे  कॉमेडियन कितने  ही बड़े पद पर क्यों ना पहुंच जाए वह अपने पद की गरिमा को नीचा दिखाए बगैर नहीं रह सकते. मसखरे सिद्धू कभी संजीदा नहीं हो सकते. देश विरोधी कृत्य के लिए ना केवल उन्हें माफी मांगना चाहिए बल्कि उनसे मंत्री पद से इस्तीफा भी लिया जाना चाहिए.