मध्य प्रदेश : कांग्रेस जीती
किंतु भाजपा भी हारी नहीं
डॉ. हरिकृष्ण
बड़ोदिया
28
नवंबर को रात 1:30
बजे जब मतदान
दलों की सामग्री जमा हो रही थी मेरे एक मित्र ने पूछा कि मतदान तो बंपर हुआ है,
क्या लगता है- सरकार किसकी बनेगी. एक साधारण समझ से मैंने कहा कि कुछ भी हो 116
सीटों के साथ
भाजपा सरकार बना सकती है. उन्होंने कहा कारण- तब मेरा जवाब था कि टक्कर कांटे की
नजर आ रही है किंतु भाजपा ने जनकल्याण के इतने कार्य किए हैं कि कुछ भी हो वह
सरकार बना लेगी. बात आई गई हो गई.
11 दिसंबर की सुबह से ही जब मतगणना शुरू हुई
लगने लगा कि मतगणना के अंतिम चक्र तक कौन सरकार बनाएगा की स्थिति स्पष्ट होना
मुश्किल है. मतगणना में क्रिकेट के 20-
20 मैच की तरह
उतार-चढ़ाव आते गए. कभी भाजपा आगे होती तो कभी कांग्रेस आगे हो जाती. ऐसा रोमांच
मध्य प्रदेश के चुनावों में आज तक के इतिहास में कभी नहीं रहा. सामान्यता मतगणना
के सभी चक्र अधिकतम 2:00 बजे दोपहर तक पूरे होकर स्थिति स्पष्ट हो
जाती रही किंतु इस बार के चुनाव में मतगणना अर्धरात्रि के बाद तक चलती रही. और
पूरी तस्वीर दूसरे दिन ही स्पष्ट हो सकी कि कांग्रेस ने 114
सीटें और भाजपा
ने
109 सीटें जीती. कुल
मिलाकर एक हैंग एसेम्बली की स्थिति बनी. दोनों ही बड़े दलों को बहुमत नहीं मिला.
लेकिन संख्या बल के आधार पर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी होने और बसपा और सपा के
समर्थन से सरकार बनाने की स्थिति में आ गई.
बात अगर मध्य प्रदेश में मतदान व्यवहार की करें
तो इस बार के चुनाव अप्रत्याशित रूप से रोमांचक रहे. मतदान के दिन से मतगणना के
अंतिम परिणाम आने तक राजनीतिक पंडित भी यह कहने की स्थिति में नहीं रहे कि किसकी
सरकार बनेगी. एग्जिट पोल के नतीजों ने जो रुझान बताया वह भी इतनी स्पष्टता नहीं
बता सके. हां यह अनुमान जरूर सही निकला कि भाजपा की स्थिति अच्छी नहीं है. कितनी
विचित्र बात है कि 2013 में भाजपा को 38% वोट मिले थे लेकिन उसकी सीटों की संख्या 166
थी वहीं इस
चुनाव में उसे 41 % वोट मिलने के बाद भी सीटों की संख्या मात्र
109
रही. वहीं
कांग्रेस को भी 40.9% वोट मिले किंतु इसकी सीटें 114
हो गइं. वस्तुतः
मध्य प्रदेश में दोनों ही दलों को लगभग बराबर बराबर वोट मिले किंतु कांग्रेस को 0.1%
कम वोट मिलने के
बाद भी उसकी 5 सीटें अधिक रहीं. अगर हम दोनों पार्टियों में
वोटों के अंतर की बात करें तो कांग्रेस को भाजपा से 45,827 वोट कब मिले किंतु उसकी सीटों की संख्या में
वृद्धि रही.
भाजपा की स्थिति ऐसी क्यों हुई अगर हम
विश्लेषण करें तो पाते हैं कि निश्चित तौर पर ऐसा कोई कारण नहीं था कि सामान्य से
सामान्य स्थिति में भी भाजपा सरकार न बना पाती. भाजपा के 15
वर्षों के और
शिवराज के 13 वर्षों के कार्यकाल में मध्यप्रदेश में जितने
विकास कार्य हुए इतने मध्य प्रदेश के गठन के बाद कभी नहीं हुए. सड़क, पानी और बिजली
जैसी अहम सुविधाओं में अकल्पनीय वृद्धि हुई. शिक्षा स्वास्थ्य की स्थिति इन 15
वर्षों में
सुधरी. शिवराज खुद एक किसान होने के कारण उन्होंने किसानों की
तकलीफों को कम करने में कोई कमी नहीं रखी. गरीब परिवारों की बेटियों के विवाह कराए,
पढ़ने वाली लड़कियों को साइकिल मुहैया कराई, वृद्धावस्था पेंशन और तीर्थ दर्शन की
सुविधाएं उपलब्ध कराई. कर्मचारियों को केंद्र के बराबर समय-समय पर महंगाई भत्ता
स्वीकृत किया. कर्मचारियों को कुछ अपवादों को छोड़कर छठवां और सातवां वेतन आयोग की
सिफारिशों को लागू किया. विगत 5 साल में प्रदेश में मेडिकल कॉलेजों के खोलने
का काम किया. सिंचाई की सुविधाओं में वृद्धि की. आवास विहीन परिवारों को केंद्र की
योजना के अनुसार आवासों के निर्माण कराए. प्रदेश में उज्जवला योजना के अंतर्गत
परिवारों को गैस कनेक्शन दिए, और बहुत सी ऐसी योजनाएं शुरू कीं जो जन कल्याण के
लिए आवश्यक थीं. तब ऐसी स्थिति के बावजूद आखिर क्यों जनता ने उन्हें चौथी बार
सरकार बनाने से रोक दिया. यह सवाल हर एक के मन में कौंध रहा है.
अगर हम गंभीरता से विचार करें तो
लगता है कि सबसे बड़ा कारण एंटी इनकंबेंसी रही. किसी पार्टी की सरकार जब अपने तीन
कार्यकाल पूरे कर लेती है तो जनता के मन में बदलाव की एक हूक उठती है कि अब कुछ नया
होना चाहिए. इस तरह के बदलाव का सबसे बड़ा उदाहरण राजस्थान है जहां पिछले दो दशक
से हर 5
साल में जनता
सरकार बदल देती है. मध्यप्रदेश में यही कारण रहा कि भाजपा चौथी बार सरकार बनाने
में असफल रही.
दूसरा बड़ा कारण एट्रोसिटी एक्ट पर केंद्र सरकार
की एससी- एसटी वर्ग की तुष्टीकरण के कारण हिंदी बेल्ट के प्रदेशों में अगड़ी और
पिछड़ी जातियों में असंतोष ने भी सरकार बदलने में बड़ी भूमिका निभाई. सवर्ण जाति
के मतदाताओं ने भाजपा को वोट नहीं दिया बल्कि उन्होंने कांग्रेस को वोट दिया या
नोटा में दिया. जिसके परिणाम स्वरूप भाजपा सत्ता से बाहर हो गई. मध्यप्रदेश में
नोटा के मतों की संख्या 5,42,295 रही जो निश्चित रूप से भाजपा के प्रतिबद्ध
मतदाता थे. भाजपा को यद्धपि कांग्रेस से ज्यादा मत मिले और यदि नोटा में गए मत उसे
मिल जाते तो कोई कारण नहीं था की वह चौथी बार सरकार नहीं बनाती. निश्चित रूप से
एट्रोसिटी एक्ट में केंद्र सरकार द्वारा ऑर्डिनेंस लाना भाजपा को तीनों राज्यों
राजस्थान छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में भारी पड़ गया. एट्रोसिटी एक्ट पर ऑर्डिनेंस
का कारण मूलतः यही रहा कि भाजपा नेतृत्व अनुसूचित जाति और जनजाति को नाराज नहीं
करना चाहती थी. उसका मानना रहा होगा की अगड़ी जाति उनकी मजबूरी समझेगी लेकिन उसके
इस कदम ने अगड़ी जातियों में असंतोष पैदा कर दिया. जिसका परिणाम नोटा के रूप में
भुगतना पड़ा. तो दूसरी ओर जिस अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग को साधने का प्रयत्न
किया गया उसने भी साथ नहीं दिया क्योंकि आजादी के बाद से आज तक उसका सॉफ्ट कॉर्नर
हमेशा कांग्रेस की तरफ रहा है. वहीँ सारी सुविधाएं देने के बाद भी प्रदेश का सबसे
बड़ा किसान वर्ग भी नीमच गोली कांड के बाद भाजपा से नाराज था. विचित्र बात यह है
कि जहां गोली चली वहां नीमच और मंदसौर की सभी सीटें भाजपा ने जीतीं. किंतु वहां के
आंदोलन ने प्रदेश के दूसरे हिस्सों के किसानों को प्रभावित किया जहां भाजपा को
उनकी नाराजगी झेलना पड़ी. दूसरी तरफ केंद्र सरकार के जीएसटी के कारण छोटे
व्यापारियों की नाराजी भी भाजपा की हार का कारण बनी. एक वाक्य में कहा जाए तो
सवर्णों, छोटे व्यापारियों और किसानों की नाराजगी ने भाजपा को सत्ता से दूर करने
में बड़ी भूमिका निभाई. तो दूसरी ओर कांग्रेस ने अपने प्रचार मे ऐसी लुभावनी
घोषणाएं कीं कि उससे प्रदेश का बड़ा वर्ग किसान और बेरोजगार ज्यादा प्रभावित हुआ.
कांग्रेस ने वादा किया कि वह 10 दिन में सरकार बनते ही किसानों का कर्ज माफ
कर देगी. किसानों के बिजली बिल आधे कर देगी, पेट्रोल और डीजल के दामों में कटौती
करेगी. बेरोजगारों को प्रतिमाह दस हजार रु. देने की भी उसने
घोषणा की. कुल मिलाकर इन चुनावों ने कांग्रेस को संजीवनी दी जिससे उसकी राजनीतिक छबि में उछाल आ गया.
कांग्रेस मध्यप्रदेश में जीत जरूर गई लेकिन 15 साल की एंटी इनकंबेंसी के बाद भी भाजपा के
मतों में वृद्धि और 109 सीटों का मिलना यह प्रकट करता है कि भाजपा भी
हारी नहीं है, वह सत्ता से प्रथक जरूर हो गई है.
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