‘सबका’ विश्वास कभी नहीं मिलेगा भाजपा को
-डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया
जिस दिल्ली की जनता ने देश के आम चुनावों
में सभी 7
सीटों का भाजपा
को उपहार दिया उसी दिल्ली की जनता ने विधानसभा चुनावों में भाजपा को नकार दिया.
भाजपा की इस हार ने निसंदेह कई सवाल खड़े कर दिए हैं. भाजपा ने मोदी कार्यकाल में
देश हित में ऐसे महत्वपूर्ण फैसले बड़ी कठोरता से किए जिनके होने की कल्पना भी
नहीं की जा सकती थी. चाहे तीन तलाक का
मुद्दा हो या धारा 370
और 35a का, चाहे राम मंदिर का विवाद सुप्रीम कोर्ट
द्वारा सुलझना हो या नागरिक संशोधन कानून हो इन सबको आत्मविश्वास और कठोरता से
लागू करना दिवास्वप्न से कम नहीं था. अगर सर्वेक्षण कराया जाए तो एक विशेष तबके को
छोड़कर आम जनता इसके पक्ष में ही खड़ी मिलेगी. स्वाभाविक था ऐसी कंफर्टेबल स्थिति
में भाजपा की दिल्ली में सरकार बनने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता था.
लेकिन ऐसा हुआ नहीं. अरविंद केजरीवाल दोबारा दिल्ली की सत्ता पर काबिज हो गए. अगर
गंभीरता से विचार करें तो यह कहा जा सकता है कि अरविंद केजरीवाल की यह जीत 2015 से भी बड़ी जीत है. 2015 में ‘आप’ ने 67 सीटें जीतकर इतिहास रचा था लेकिन इस बार की 62 सीटें 67 सीटों से भी भारी जीत इसलिए कही जा सकती है
क्योंकि सारी केंद्रीय सरकार की राष्ट्रीय उपलब्धियों के बावजूद उसने मुख्य
प्रतिद्वंदी भाजपा को पटखनी दी है.
भाजपा
यह संतोष भले ही कर ले कि उसके वोट प्रतिशत में वृद्धि हुई लेकिन सरकार बनाने की
सारी ख्वाहिशें तो धरी की धरी रह गईं. मतलब साफ है कि दिल्ली की जनता ने राज्य में
भाजपा या मोदी-अमित शाह को स्वीकार नहीं किया. देश के आम चुनावों के बाद लगातार
प्रदेश में भाजपा सरकारों का हाथ से फिसलना कोई साधारण बात नहीं है. पहले
छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान हाथ से फिसल गया तो 2020 आते-आते महाराष्ट्र और झारखंड हाथ से निकल
गया. तो क्या यह माना जाए कि मोदी मैजिक ढलान पर है. लेकिन ऐसा नहीं माना जा सकता
क्योंकि राज्य और केंद्र के मुद्दे कभी समान नहीं होते. जो राष्ट्रीय मुद्दे होते
हैं वे राज्य के मुद्दों से पर्याप्त भिन्न होते हैं. यही कारण है कि राज्यों में
जनता ने भाजपा को उतना समर्थन नहीं दिया जितना कि सरकार बनाने के लिए जरूरी होता
है और यह स्थिति आगे भी दिखाई दे तो अचंभा नहीं होगा. केंद्र में जनता ने मोदी को
और राज्यों में जनता ने विपक्षियों को मौका दिया . वैसे मोदी का जादू आज भी बरकरार
है और यह स्थिति 2024
में दिखाई देने
की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि जिस राष्ट्रवाद के मुद्दे पर
भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय मुद्दों को हल कर रही है उससे उसका जनाधार केंद्र के
लिए बढ़ता जा रहा है.
बात
अगर दिल्ली की करें तो साफ दिखाई देता है कि दिल्ली की जनता ने स्थानीय मुद्दों को
महत्व दिया. निसंदेह अरविंद केजरीवाल ने यह चुनाव अपनी रणनीतिक कुशलता से जीता है.
कौन नहीं जानता कि आप की सरकार ने दिल्ली की जनता से जो वादे किए थे वे पूरे नहीं
हुए हैं फिर भी जनता ने उनमें विश्वास जताया है. अरविंद केजरीवाल ने चुनाव के ठीक 3 महीने पहले से अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा
पीटना शुरू कर दिया था चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सब में
अरविंद केजरीवाल ने ताबड़तोड़ प्रचार किया. चुनाव के 6 महीने पहले से स्वयं को जनता में स्थापित
करने के लिए डेंगू की रोकथाम वाला प्रचार विज्ञापन चलाया गया. घर-घर में यह संदेश
देने में कामयाबी पाई कि केजरीवाल सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली और पानी की
व्यवस्था पर अतिरिक्त कार्य कर दिल्लीवासियों की समस्या हल की है. वस्तुतः दिल्ली
एक बड़ा क्षेत्र है और आम लोगों की जिंदगी भी चक्रीय है. लोगों को विज्ञापनों की
विश्वसनीयता जांचने का इतना समय नहीं कि जाकर देखें कि सच्चाई क्या है. जो
विज्ञापनों ने दिखाया उस पर विश्वास किया गया फिर आम जिंदगी के लिए आवश्यक वस्तुओं
के लिए मुफ्त सुविधाएं (भले ही वे पर्याप्त ना हों) आखिर उनको मिलीं. चुनाव से एन
पहले महिलाओं की डी टी सी बसों में यात्रा मुफ्त करने का दांव भी निशाने पर बैठा. कुल मिलाकर
चुनाव जीतने की जितनी अच्छी रणनीति केजरीवाल ने बनाई वह सफलता का कारण बनी.
ऐसी स्थिति में जब दिल्ली में शाहीन बाग पर
मुस्लिम महिलाओं का सीएए के विरोध में प्रदर्शन चल रहा हो ऐसे में केजरीवाल ने
प्रत्यक्ष रूप से उससे दूरी बनाए रखी. केजरीवाल ने अपनी आलोचना का मौका अपने
विपक्षियों को नहीं दिया. वहीं उनके
सिपहसालारों जिनमें अमानतुल्लाह का नाम सर्वोपरि है ने मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण
करने का काम किया. स्वाभाविक है कि केजरीवाल ने अपने नुमाइंदों से ही सीएए का
प्रत्यक्ष रूप से समर्थन कराया किंतु स्वयं निरपेक्ष बने रहे. वहीं दूसरी ओर भाजपा
का यह अनुमान कि उसने विगत 6 महीनों में जो अकल्पनीय निर्णय लिए हैं वह दिल्ली में सरकार बनाने में मदद
करेंगे संभव नहीं हो सका. भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय मुद्दों को प्रचारित कर चुनाव
जीतने की कोशिश की किंतु संभव नहीं हो सका.
कहने को कहा जा सकता है कि भाजपा के नेताओं जिनमें प्रवेश वर्मा और अनुराग ठाकुर
का नाम शामिल है ने वोटों के ध्रुवीकरण के लिए बयान दिए लेकिन सच्चाई यह है कि
भाजपा के हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण के विपरीत मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण एक
मुस्त हुआ. तो साथ ही भाजपा राष्ट्रवाद के
मुद्दे को भुनाने में असफल रही.
एक महत्वपूर्ण बात जो दिखाई देती है वह यह है कि दिल्ली के इन चुनावों
में कांग्रेस ने परोक्ष रूप से भाजपा को पटखनी देने के लिए अरविंद केजरीवाल का साथ
दिया. भले ही कांग्रेस ने सभी 70 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे लेकिन किसी भी विधानसभा सीट में उसने गंभीरता
से चुनाव नहीं लड़ा. यह इस बात से स्पष्ट होता है कि लगभग 60 से अधिक विधानसभा सीटों पर उसके उम्मीदवारों
की जमानत जप्त हुई है. यही नहीं कांग्रेस ने अंतिम क्षणों में अपने प्रतिबद्ध
वोटरों से भाजपा के विरुद्ध ‘आप’ पार्टी के पक्ष में वोट डलवाए. कांग्रेस ने कुल मिलाकर आत्मघाती कदम ही उठाया
जिसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस का वोट भी आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों को मिल
गया.
वस्तुतःकांग्रेस का मंतव्य स्पष्ट हो गया कि
उसे स्वयं की जीत हार की चिंता से अधिक इस बात की चिंता थी कि कहीं भाजपा ना जीत
जाए, जिसके लिए उसने अपना जनाधार खोने की भी परवाह भी नहीं की. कांग्रेस के नेताओं
के बयानों ने भी स्पष्ट किया कि उसका सरोकार जीतने से ज्यादा मोदी को बदनाम करने
का अधिक था. शाहीन बाग में प्रदर्शनकारियों के समर्थन में हमेशा की तरह मणिशंकर
अय्यर ने मोदी को ‘कातिल’ की संज्ञा दी तो बेरोजगारी पर प्रहार करने के लिए राहुल
गांधी ने अशिष्टता की सीमाएं लांघते हुए
कहा कि ‘यह जो नरेंद्र मोदी भाषण दे रहा है, 6 या 8
महीने बाद यह घर
से बाहर नहीं निकल पाएगा. हिंदुस्तान के युवा इसको ऐसा डंडा मारेंगे, इसको समझा देंगे
कि हिंदुस्तान के युवा को रोजगार दिए बिना यह देश आगे नहीं बढ़ पाएगा.’ ऐसे बयानों
से कांग्रेस को ह पहले भी हानि होती रही है और आगे भी होती रहेगी जिसका लाभ आम
चुनावों में पहले भी भाजपा को मिला और आगे भी मिलता रहेगा. लेकिन दिल्ली चुनावों
में भाजपा को लाभ नहीं मिल पाया, ना तो राष्ट्रवाद का लाभ मिल पाया और ना ही उसके
द्वारा देश हित में बनाए गए कानूनों का ही लाभ मिल पाया.
चुनावों के विधानसभावार विस्तृत परिणामों का आना
अभी बाकी है लेकिन जो परिणाम हैं वह यह बताते हैं कि अधिकांश भाजपा प्रत्याशी 1000 से कम या दो हजार वोटों के अंतर से हारे हैं.
स्पष्ट है यदि कांग्रेस के प्रत्याशी अपनी जमानत बचाने के लिए प्रयास करते तो
भाजपा बहुत सी सीटों पर जीत दर्ज कर जाती, संभव है सरकार भी बन जाती.
आज कांग्रेस इस बात से दुखी नहीं है कि उसके
लगभग सभी उम्मीदवारों की जमानत जप्त हुई बल्कि इस बात से खुश है कि भाजपा हार गई.
इस तरह की नकारात्मक राजनीति का यह पहला इतिहास ही होगा. दिल्ली चुनावों के
परिणामों को अलग कर यदि वर्तमान में राजनीतिक दलों की स्थितियों का मूल्यांकन करें
तो आज भी भाजपा पूरे देश में सबसे आगे है जबसे सीएए आया है तब से यह बात भी स्पष्ट
हो गई कि मोदी जिस ‘सबका’(मुस्लिम तबके का) विश्वास की बात कर रहे हैं वह सब का
विश्वास ना तो पहले कभी भाजपा के साथ था और ना आज है, और ना आगे कभी रहेगा.
हिंदुत्व की विशेषता है कि यह सभी को उदारता से अपने साथ जोड़ता है किंतु
अल्पसंख्यक कट्टरतावाद से आप उम्मीद नहीं कर सकते और करनी भी नहीं चाहिए. जिस ‘सबका’
विश्वास जीतने के लिए भाजपा जतन कर रही है उसका दुष्प्रभाव उसके परंपरागत वोटों पर
पड़ रहा है जो इधर-उधर छिटक कर भाजपा को हानि पहुंचाने का काम कर रहा है. भाजपा
जैसी थी वैसी ही बनी रहे तो ही वह अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकती है.
भाजपा दिल्ली भले ही हार गई हो किंतु
दिल्लीवासियों के दिल में बसती है और दिल्ली ही क्या आज देश के आम लोगों के दिलों
में बसी है. जरूरत तो इस बात की है कि ऐसे निर्णय आने चाहिए जिसके लिए भाजपा
पहचानी जा रही है. कोई माने या ना माने लेकिन तीन तलाक जैसी प्रथा को हटाया जाना
समान नागरिक संहिता का एक भाग है और अब यह जरूरी है कि समान नागरिक संहिता के साथ
साथ जनसंख्या नियंत्रण जैसे कानून लागू किए जाएं. पूरे देश में एक कानून होना
चाहिए जो सब पर लागू हो
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