सीएए तो बहाना है असली पीड़ा कुछ और है...
डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया
सीएए अर्थात नागरिकता
संशोधन कानून 12 दिसंबर 2019 को बना उसके बाद
पूरे देश में मुस्लिम तबके में जैसे भूचाल आ गया. जामिया मिलिया विश्वविद्यालय, अलीगढ़
मुस्लिम विश्वविद्यालय और जेएनयू से निकलकर सरकार विरोधी छात्र सड़कों पर आ गए. देश की
राजधानी में आगजनी हिंसा पथराव और प्रदर्शनों का दौर जारी हुआ. इस सबके
बावजूद कि नागरिकता संशोधन कानून भारत के किसी भी नागरिक की नागरिकता को प्रभावित नहीं
करता, मुस्लिम
समुदाय ने इसे मुस्लिम विरोधी करार दिया और सड़कों पर उतर आए. देश के सरकार विरोधी विपक्ष ने मुस्लिम
तुष्टिकरण और आम चुनावों में अपनी करारी हार की भड़ास निकालने का इसे सबसे माकूल
मौका समझकर सीएए के विरुद्ध प्रदर्शनों को समर्थन देना शुरू कर दिया. कांग्रेस, वामपंथी दलों के साथ मुस्लिम संगठन सक्रिय हो गए. ऐसे में ही 15 दिसंबर को शाहीन बाग
में मुस्लिम महिलाओं का धरना प्रदर्शन शुरू हुआ जो आज भी जारी है.
शाहीन बाग का प्रदर्शन इस मामले में विलक्षण है
कि पुरुष प्रधान मुस्लिम समाज ने अपने घर की दादियों, बच्चों और महिलाओं को आगे कर यह सिद्ध कर
दिया कि वह अपने वेबुनियादी लक्ष्य को पाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. शायद यह
दूसरा मौका है जब शाहबानो के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरुद्ध मुस्लिम समुदाय ने
देशभर में प्रदर्शन किया था. मुस्लिम समुदाय का मुस्लिम महिला शक्ति का
ऐसा इस्तेमाल शायद इतिहास में पहली बार ही सामने आया है. वैसे भारतीय संस्कृति और सभ्यता में
महिलाओं को ढाल बनाकर लड़ाई लड़ना शेरदिली तो नहीं कही जा सकती है लेकिन सीएए के
विरोध के लिए मुस्लिम समुदाय की यह रणनीति राजनीति की सोची समझी साजिश है
. शाहीन बाग के
धरने ने आसपास के क्षेत्र के लाखों आम नागरिकों की जिंदगी को बंधक बना दिया. शाहीन बाग के धरने ने कालिंदी कुंज, उत्तर प्रदेश
के नोएडा और हरियाणा के फरीदाबाद आने जाने वाले करीब 20 लाख लोगों को सड़क रोककर
प्रभावित किया है. मुस्लिम धरना
प्रदर्शन करने वाली महिलाओं का कहना है कि जब तक यह कानून वापस
नहीं लिया जाता वह शाहीन बाग नहीं छोड़ेंगी. धरना स्थल के आसपास के लगभग 100
शोरूम मालिकों को अब तक कई करोड़ रुपए का नुकसान
हो चुका है, वे परेशान हैं. दैनिक जागरण की खबर के अनुसार ‘कई
कारोबारियों ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि उन्हें बहुत नुकसान हुआ है लेकिन वे प्रदर्शन का
विरोध नहीं कर सकते. अगर वे अपनी बात प्रदर्शनकारियों के सामने रखते भी हैं तो उन्हें कौम
का गद्दार कहा जाता है. ऐसे में नुकसान बर्दाश्त करना ही उनके पास एकमात्र विकल्प है. क्योंकि
कारोबारियों को उन्हीं के बीच रहना है.’
17
फरवरी को शाहीन बाग से प्रदर्शनकारियों को हटाने
के लिए लगी याचिकाओं के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा वह यही था कि
प्रदर्शनकारियों का यह अधिकार है कि वह विरोध करें लेकिन यह नहीं हो सकता
प्रदर्शनकारी सड़क रोक कर दूसरे लोगों को उनके अधिकार से वंचित करें. यदि सभी लोग
धरना प्रदर्शन के नाम पर सड़क जाम कर दें तो क्या होगा. इस टिप्पणी के बाद धरने पर बैठी एक बुजुर्ग मुस्लिम दादी ने
प्रेस से बात करते हुए कहा कि जब तक उनकी बात सरकार नहीं मानती, जब तक सीएए, एनपीआर और एनआरसी वापस नहीं लिया जाता हम कोर्ट
की भी नहीं मानेंगे. ये दादियां इस सब के पीछे का खेल नहीं समझती उनसे जैसा कहलवाया जाता है
वह कह देती हैं. सुप्रीम कोर्ट ने समस्या के हल के लिए तीन वरिष्ठ वकीलों को
मध्यस्था के लिए निर्देश देते हुए 24
फरवरी को पुनः सुनवाई की तारीख तय की है किंतु
नहीं लगता कि इस बीच कोई समाधन हो पाएगा.
वस्तुतः जो स्थिति दिखाई दे रही है वह यही है कि
धरने पर बैठी दादियां, नानियाँ, बच्चे और महिलाएं वहां से नहीं हटेंगे. जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह
सहित सरकार के प्रतिनिधि और प्रवक्ता अपनी जनसभाओं में और टीवी डिबेट्स में यह स्पष्ट कर चुके हैं कि इस कानून का
देश के नागरिकों से कोई संबंध नहीं और देश के नागरिकों की नागरिकता भी प्रभावित
नहीं हो रही है और यह भी कि यह कानून किसी भी कीमत पर वापस नहीं लिया जाएगा फिर
सरकार क्या बात करे. सच्चाई तो यह है यह धरना प्रदर्शन मुस्लिम महिलाओं को ढाल बनाकर
मुस्लिम संगठन, कांग्रेस, वामपंथी और ऑल इंडिया मजलिस-ए- इत्तेहादुल
मुस्लिमीन अर्थात ओवैसी की पार्टी और मोदी विरोधी करा रहे हैं और सीएए तो बहाना है,असली पीड़ा कुछ और है.
यह मोदी सरकार के पिछले छह-सात महीने में किए गए
महत्वपूर्ण फैसलों- कश्मीर से धारा 370
और 35ए को हटाना, इंस्टेंट तीन तलाक पर रोक का कानून और राम मंदिर मुद्दे पर मुसलमानों की सुप्रीम
कोर्ट में हार की भड़ास है. विरोधी दल इस बात से गंभीर रूप से परेशान हैं कि ये कठोर और
शक्तिशाली निर्णय आम जनमानस में मोदी सरकार की दृढ़ता को और ज्यादा मजबूत करते जा
रहे हैं. कांग्रेस इस बात से परेशान है कि मोदी सरकार एक-एक कर ऐसे
निर्णय ले रही है जिन्हें उसने साठ सालों के अपने शासनकाल में मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए उपयोग किया. अगर हम
कश्मीर से धारा 370 और 35ए हटाने की बात करें तो भारत के इतिहास में
यह निर्णय देश की एकता और अखंडता और कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग होने की पुष्टि
का निर्णय है. सच्चाई तो यह है कि इस निर्णय ने जम्मू कश्मीर का राजनीतिक
हुलिया ही बदल कर रख दिया. जिस कश्मीर पर कुछ पुश्तैनी सियासतदानों
का राज था और जो वहां के बेताज बादशाह थे, अब ना तो उनकी बादशाहत रही और ना ही
कश्मीर का विशेष राज्य का
दर्जा ही रहा. आज जम्मू कश्मीर 1947
के बाद विशुद्ध रूप से भारत का एक केंद्र शासित
राज्य बना. इन धाराओं को हटाने के साथ मोदी ने जो सबसे बड़ा काम किया वह
यह है कि उन्होंने जम्मू कश्मीर और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया. इससे सरकार
ने लद्दाख वासियों को कश्मीरी सियासतदानों के शोषण से मुक्त कराने में सफलता
पाई. जिस जम्मू
कश्मीर में देश का तिरंगा नहीं लहराया जा सकता था वहां आज न केवल भारत का तिरंगा
लहरा रहा है बल्कि लेफ्टिनेंट जनरल की नियुक्ति कर शासन व्यवस्था केंद्र के अधीन
हो गई. ऐसी स्थिति
में मोदी विरोधी मुंह ताकते रह गए तब क्यों कर मोदी का विरोध ना हो. सच्चाई तो यह
है कि यह सारे निर्णय जहां एक और देश की अस्मिता से जुड़े थे वहीं इनसे देश की
मुस्लिम कम्युनिटी का गहरा संबंध था. चाहे वह राम मंदिर का मुद्दा हो, तीन तलाक या 370 - 35a का ये सब देश की
मुस्लिम कम्युनिटी को प्रभावित करते हैं. इन निर्णयों की उद्घोषणा पर मोदी
विरोधियों को चीखने चिल्लाने का मौका नहीं मिल पाया हालांकि विपक्ष ने संसद में इनका पुरजोर विरोध किया. लेकिन यदि विपक्ष सड़कों पर हाय तोबा
करता तो यह राष्ट्र के विरुद्ध कार्य माना जाता. शाहीन बाग धरने से सीएए कानून खत्म करवाने का तो बहाना है
वस्तुतः यह राष्ट्रहित में संशोधित या बने कानूनों की पीड़ा है जिसने इन सब विरोधियों
को एकजुट करने का काम किया. शाहीन बाग की फंडिंग का कनेक्शन जब पीएफआई
से होता है, जब शाहीन बाग समर्थक सरजील इमाम देश से असम को (चिकन नेक) अलग कर देने
का बयान देता है तब लगता है कि मुस्लिम दादियां, बच्चे और मोहतरमाएं इस बात से पूरी तरह बेखबर हैं कि इसके पीछे का सच भारत को तोड़ने की
साजिश का है. ये महिलाएं और बच्चे अल्लाह की ऐसी गाय हैं जिन्हें देश विरोधी और स्वार्थी तत्वों ने शाहीन
बाग़ के खूंटे से बांध दिया है. 65 दिन में अपने ही
समुदाय के कारोबारियों का व्यापार ठप्प करना और आम जनजीवन को सड़क बंद कर बंधक
बनाना विरोध प्रदर्शन के अधिकार का बेजा इस्तेमाल नहीं तो क्या है. सुप्रीम
कोर्ट ने प्रदर्शनकारियों से सही सवाल किया कि यदि इसी तरह का प्रदर्शन सभी सड़कों
को बंद कर दे तो क्या होगा. शाहीन बाग देश में अधिकांश लोगों द्वारा
पसंद भले ही नहीं किया जा रहा किंतु पाकिस्तान जैसे दुश्मनों को बहुत पसंद आ रहा
है. कट्टरपंथी मुसलमान चाह रहे हैं सरकार किसी
भी दशा में उनके सामने झुक जाए किन्तु ऐसा होना संभव नहीं. वस्तुतः शाहीन बाग दिल्ली के चुनावों के लिए रचा गया एक प्रपंच
था जिसका उद्देश्य भाजपा को दिल्ली में हराना था और उसमें मोदी विरोधी सफल भी हो गए. लेकिन अब यह धरना ऐसे मुकाम पर पहुँच
गया है जहां से मुस्लिम समुदाय सम्मानजनक वापसी चाहता है. किन्तु ऐसा लगता नहीं कि
सरकार अपने कदम वापिस लेगी और उसे लेना भी नहीं चाहिए. देखना होगा कि शाहीन बाग़
धरने का अंत सुप्रीम कोर्ट के कठोर निर्णय से होगा या अभी और चलेगा.
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