चिट्ठी ने हिला कर रख दिया कांग्रेस नेतृत्व को
डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया
अब यह निश्चित हो गया कि कांग्रेस के अगले अधिवेशन होने तक सोनिया गांधी
अंतरिम अध्यक्ष बनी रहेगीं किंतु उस असंतोष का कोई समाधान नहीं हुआ जो 23
वरिष्ठ नेताओं
ने अपने पत्र में व्यक्त किया था। उल्टे ये सभी कांग्रेस की उस लॉबी के निशाने पर
आ गए जो कभी भी बदलाव की पक्षधर नहीं रही। वस्तुतः असंतुष्टों का उद्देश्य
कांग्रेस को हानि पहुंचाना बिल्कुल नहीं लगता, वे लोग गांधी परिवार से अलग कांग्रेस की कल्पना भी
नहीं कर सकते। इसमें कोई शक नहीं कि यदि आज कांग्रेस में गांधी परिवार से अलग किसी
बाहरी व्यक्ति के चुनने की बात आ जाए तो निश्चित ही कांग्रेस की एकजुटता तार-तार
हो जाएगी। कई लोगों की महत्वाकांक्षाओं की हिलोरें कांग्रेस के अस्तित्व को हानि
पहुंचाए बिना नहीं रहेगीं। आज बहुत बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस को एक
पूर्णकालिक अध्यक्ष की जरूरत है, जिसकी मांग इन असंतुष्टों द्वारा की जा रही थी।
लेकिन सचाई तो यह है कि कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व यह कभी नहीं चाहेगा कि असंतोष
के आधार पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जाए यही कारण है कि उसने फ़िलहाल टालमटोल का
रास्ता चुना।
हालांकि अभी कांग्रेस में उठा तूफान थोड़ा बहुत थम गया है लेकिन यह राख के
ढेर में चिंगारियां के मौजूद होने की तस्दीक करता है जो फिर कभी भी सुलग कर आग लगा
सकती है। यह शायद कांग्रेस के इतिहास में पहली बार है कि जब कांग्रेस दो धडों में बंट गई। एक प्रथम
परिवार सोनिया, राहुल और प्रियंका और उनके समर्थकों का धड़ा रहा तो दूसरे उन 23
वरिष्ठ नेताओं
का जिन्होंने चिट्ठी लिखकर पूर्णकालिक अध्यक्ष की मांग के साथ पार्टी के संबंध में
सवाल उठाए थे। कांग्रेस के ये सभी वरिष्ठ सदस्य पिछले दसियों सालों से कांग्रेस के
प्रति निष्ठावान रहे हैं किंतु जब शशिथरूर, कपिल सिब्बल, गुलामनबी आजाद, आनंद
शर्मा, मुकुल वासनिक और विवेक तनखा जैसे लोग चिट्ठी लिखें तो स्वाभाविक है उसका कोई ना कोई बड़ा कारण जरूर
रहा होगा। विचित्र बात तो यह है कि चिट्ठी लिखने वालों में 5 सदस्य कार्य समिति के
सदस्य हैं। सवाल इस बात का नहीं है कि नेतृत्व पर सवाल उठे बल्कि
सवाल इस बात का है कि कांग्रेस के प्रथम परिवार के प्रति निष्ठा का सार्वजनिक रूप
से उपहास हुआ। 7 घंटे चली मैराथन ने वर्किंग कमेटी में ना तो
नए अध्यक्ष की कोई बात हुई और ना किसी नई रणनीति की बात हुई बल्कि 23
नेताओं द्वारा
लिखी चिट्ठी पर सवाल दागे गए। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस चिट्ठी की
आलोचना की, ऐसे ही समय में सोनिया गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफे की
घोषणा की किन्तु जैसा अमूमन होता है डॉ. मनमोहन सिंह और ए.के.एंटोनी ने इसको अस्वीकार कर दिया।
इसमें कोई शक नहीं कि यदि आज कांग्रेस में गांधी परिवार से अलग किसी बाहरी व्यक्ति
के चुनने की बात आ जाए तो निश्चित ही कांग्रेस की एकजुटता समाप्त हो जाएगी। कई
लोगों की महत्वाकांक्षाओं की हिलोरें उठेंगी और वे कांग्रेस के अस्तित्व को हानि
पहुंचाए बिना नहीं रहेंगी। कांग्रेस आज बहुत बुरे दौर से गुजर रही है । कोई शक
नहीं कि कांग्रेस को एक पूर्णकालिक अध्यक्ष की जरुरत है जिसकी मांग असंतुष्टों
द्वारा की जा रही है किन्तु उस पर कोई विचार नहीं किया गया। यदि चिट्ठी पर विचार
विमर्श किया जा कर कोई रास्ता निकाला जाता तो ज्यादा अच्छा होता लेकिन ऐसा नहीं होना
था और नहीं हुआ।
वस्तुत: चिट्ठी की टाइमिंग पर सवाल उठाए गए। पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी इस
बात से बहुत अधिक नाराज थे कि यह चिट्ठी तभी क्यों लिखी गई जब सोनिया गांधी बीमार
थी और पार्टी राजस्थान तथा मध्य प्रदेश में सरकार पर संकट के दौर से गुजर रही थी।
राहुल गांधी ने टाइमिंग पर तो सवाल उठाए किन्तु इस बात में कोई रुचि नहीं दिखाई कि
असंतुष्टों की मांग क्या है। और उसके समाधान के लिए क्या किया जा सकता है। हमेशा
की तरह सोनिया गांधी ने अध्यक्ष पद पर काम करते रहने में अपनी असमर्थता दिखाई जरूर
लेकिन वह कोई ऐसी बात नहीं कर सकीं कि नए
अध्यक्ष का चुनाव किया जाना उचित होगा क्योंकि यह शायद ही कभी होगा कि प्रथम
परिवार से अलग किसी अध्यक्ष को प्रथम परिवार स्वीकार करेगा। जब भी अध्यक्ष चुना
जाएगा उनकी पहली पसंद राहुल होंगे और यदि वे नहीं मानेंगे तो फिर प्रियंका गाँधी
होंगी।
सच तो यह है कि सोनिया गाँधी और
राहुल चिट्ठी लिखने वालों पर बहुत खपा थे। राहुल गांधी जिस तरह कहीं भी कभी भी और
कुछ भी बोल देते हैं वैसे ही उन्होंने असंतुष्ट नेताओं पर आरोप मढ़ दिया कि यह लोग
बीजेपी से मिलीभगत कर रहे हैं। इस बात पर इतना बवाल मचा के इतिहास बन गया। जिस
कांग्रेस पार्टी में नेतृत्व के खिलाफ कभी कोई कुछ नहीं बोलता, जिनकी निष्ठा पर
कभी अंधेरे में भी संदेह नहीं किया जा सकता उनके ऊपर जब भाजपा से मिलीभगत का आरोप
खुद राहुल गांधी लगाएं तो बावेला मचना ही था। कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद ने
दुखी मन से कठोर शब्दों में विरोध किया। सिब्बल ने कहा ‘किसी मुद्दे पर 30
साल में बीजेपी
के पक्ष में कोई बयान नहीं दिया फिर भी हम बीजेपी से मिलीभगत कर रहे हैं’ ? सिब्बल
ही वे व्यक्ति हैं जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट से राम मंदिर निर्णय पर चुनावों के
पहले निर्णय ना दिए जाने की गुहार लगाई थी क्योंकि उनका मानना था कि इससे भाजपा को
लाभ मिल सकेगा। ऐसे व्यक्ति पर मिलीभगत का आरोप लगाना राहुल गांधी की नासमझी ही कहा
जाएगा। वहीं गुलाम नबी आजाद ने कहा ‘अगर बीजेपी से सांठगांठ के आरोप सिद्ध होते
हैं तो इस्तीफा दे दूंगा’। कहते हैं कमान से निकला तीर और जुबान से निकले शब्द
वापस नहीं आते। जब इन आरोपों की कांग्रेस को गंभीरता समझ में आई तब फिर डैमेज
कंट्रोल के लिए कहा गया कि राहुल गांधी ने ऐसा कहा ही नहीं है। तब ऐसा लगा कि जैसे
सिब्बल और गुलाम नबी आजाद इसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। सच्चाई तो यह है की वरिष्ठ नेताओं के ऊपर
मिलीभगत के आरोप ने ना केवल सभी को घायल किया बल्कि राहुल गांधी ने अपने नासमझी
पूर्ण वक्तव्य से दिलों की दूरी बढ़ाने का काम किया। अब प्रश्न इस बात का है कि कांग्रेस
में नेता असंतुष्ट क्यों हैं ? कांग्रेस वह
पार्टी है जिसने देश पर छह दशक से अधिक राज किया। नेताओं का गुजारा अब
बिना सत्ता के
‘जल बिन मछली’ की’ तरह
हो रहा है। यही
नहीं 2014
में
सत्ता विहीन हो
कर इस उम्मीद में सारे नेता चुप रहे कि यह बदलाव जनता की
अच्छे दिनों की
मृग मरीचिका का परिणाम है। और 5 साल बाद 2019 में दोबारा सत्ता
पा लेंगे, क्योंकि मोदी सरकार जनता को अच्छे दिन दे ही नहीं
सकती। नवभारत टाइम्स के पत्रकार मोह्हमद नईम के अनुसार ‘2014 में राजनीती में जो बदलाव आया और नरेंद्र
मोदी इतने ऊँचे कद के साथ स्थापित हुए उसके आगे विपक्ष बौना लगने लगा। बहुत लोगों
का ख्याल हो सकता है कि यह धारणा
प्रायोजित है लेकिन सचाई यही है। मुकाबला
करिश्माई नेतृत्व से हो तो फिर हार पर आश्चर्य नहीं होता’। किंतु 2019
में
जब मोदी के
कंधों पर सवार होकर एनडीए दोबारा भारी
बहुमत से सत्ता में आ गया तो जैसे तैसे
अभी डेढ़ साल
निकला है वरिष्ठ नेतागण
आशा लगाए बैठे
रहे कोई रणनीति बनाकर कांग्रेस अपनी पुरानी प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष करेगी।
लेकिन ऐसा नहीं
हुआ।
वरिष्ठ नेताओं
की इससे बड़ी पीड़ा और क्या हो सकती है कि राहुल गांधी
पद की जवाबदारी
भी स्वीकार नहीं करते और अध्यक्ष की तरह व्यवहार करते हैं। वह ऐसे
ऐसे बयान
दे देते हैं
जिन्हें समेटना और सही निरूपित करने
का काम
दूसरे नेताओं को
करना पड़ता है। कई वरिष्ठ हैं जो इस बात से आहत हैं कि पार्टी का नेतृत्व उन बातों
की आलोचना करता है जिन बातों पर भाजपा को भरपूर जनसमर्थन मिलता है। पार्टी में ऐसे
कई नेता हैं जो इस मत के हैं कि राहुल गांधी को बहुत सोच समझ कर बयान देना चाहिए।
बहुत से ऐसे भी हैं जो इस मत के हैं कि जरूरी नहीं कि राहुल हर बात पर अपने विचार
व्यक्त कर पार्टी को नुकसान करें। उनका मत है कि बहुत सारी बातों को सुनकर समझ कर
और उचित अनुचित का मूल्यांकन कर वक्तव्य देना चाहिए। लेकिन राहुल सरकार की आलोचना
करते समय ऐसा नहीं करते।
कांग्रेस में 2019 के चुनावों के
पहले अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में राहुल गांधी ने बहुत कोशिश कर नए ऊर्जावान और
युवा लोगों को कांग्रेस संगठन में ज्यादा महत्व दे कर बदलाव
किया था। दुर्भाग्य से कांग्रेस 2019 का चुनाव बुरी तरह हार गई और ऐसे समय में जो
पुराने और वरिष्ठ लोगों की लॉबी थी उसने युवाओं को पार्टी की हार के आधार पर पीछे
धकेलने का काम शुरू कर दिया। अब तक ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, संजय
निरुपम, प्रियंका चतुर्वेदी, संजय झा जैसे नेताओं को साइड लाइन कर दिया गया है।
कुल मिलाकर यह माना गया कि इन युवा नेताओं का जनमानस में कोई प्रभाव नहीं है और
इनकी वजह से कांग्रेस को सफलता नहीं मिली। जबकि सचाई यह है कि पुराने जनाधार विहीन
नेता जो हमेशा राज्यसभा से चुनकर संसद में भेजे गए उनके प्रयासों से पार्टी को कोई
लाभ नहीं
हुआ। जबकि कुछ
युवा नेताओं ने राज्यों में बहुत अच्छा काम किया था यह किसी से छिपा नहीं है।
लेकिन पार्टी के वरिष्ठों ने हमेशा युवाओं की उपेक्षा की। यही कारण था कि
मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और राजस्थान में सचिन पायलट जैसे ऊर्जावान
नेताओं ने विरोध दर्ज करा कर एक संदेश देने का प्रयत्न किया। वरिष्ठ और युवा
नेताओं के बीच संघर्ष का सबसे बड़ा उदाहरण राजस्थान बन गया जहां अशोक गहलोत की
सचिन के विरुद्ध नफरत ने नए रिकॉर्ड स्थापित कर दिए। गहलोत ने सचिन को क्या नहीं
कहा - निकम्मा, नाकारा, अंग्रेजी बोलने से कुछ नहीं होता, सुंदर होने से राजनीति
नहीं होती आदि आदि। कहने का मतलब यह है कि वरिष्ठ लोगों ने पार्टी का भला ना कर उसे
नुकसान ही पहुंचाया जिसका परिणाम मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया का पार्टी
छोड़ने से दिखाई देता है। परिणाम स्वरूप कांग्रेस मध्य प्रदेश से बेदखल हो गई। आज
जब चिट्ठी धमाका सामने आया है तब बहुत सारी बातें नेतृत्व के विरुद्ध कही जा रही हैं
तो स्वाभाविक है कि इसका दुष्परिणाम कांग्रेस संगठन पर पड़ेगा। आज अलग-अलग तरह से
नेता अपनी बात कह रहे हैं। नेपथ्य में चले गए नेता अनिल शास्त्री ने कहा कि ‘नेतृत्व
में कुछ चीजों की कमी है, सबसे बड़ी बात यह है कि पार्टी नेताओं के बीच बैठक नहीं
होती। राज्य का कोई नेता दिल्ली आता है पर वह पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से नहीं मिल
सकता। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी जैसे पार्टी नेता अन्य नेताओं
से मिलना शुरू कर दें तो समस्या पचास फीसदी खत्म हो जाए’। पाठकों को याद होगा कि असम
के हेमंत विश्वाशर्मा ने भी यही बात कही थी कि राहुल गांधी किसी से ठीक से बात तक
नहीं करते। कुल मिलाकर नेतृत्व और संगठन तथा क्षेत्रीय
नेताओं से निरंतर संवाद ही पार्टी को संजीवनी का काम कर सकता है। एक और महत्वपूर्ण
बात यह कि जब जनआकांक्षाओं के विरुद्ध जाकर सरकार के विरोध में राहुल गांधी राफेल
और प्रधानमंत्री केयर फंड जैसे मुद्दों पर अनावश्यक बयान बाजी करते हैं तो उसका
नुकसान पार्टी को उठाना पड़ता है। जब इन मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय
पार्टी के विरुद्ध आते हैं तो पार्टी को शर्मिंदगी भी उठानी पड़ती है। जब राहुल
गांधी पाकिस्तान और चीन के मुद्दों पर सरकार का विरोध करते हैं तब भी पार्टी को
नुकसान उठाना पड़ता है। ऐसे मुद्दों पर पार्टी को सरकार के समर्थन में रहना चाहिए
क्योंकि यह दलगत राजनीति का नहीं बल्कि राष्ट्र की एकता का मामला होता है। सचाई तो
यह है की नकारात्मकता से बाहर आने पर ही कांग्रेस का कुछ भला हो सकता है इसके
अलावा और कोई दूसरा रास्ता नहीं। फिलहाल तो चिट्ठी बम ने कांग्रेस को हिला कर रख
दिया है अब उसके दुष्परिणामों को देखना होगा।
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