डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया
इसमें कोई शक नहीं कि पंजाब के गुरदासपुर में
भारी बहुमत से कांग्रेस की जीत ने उसमें काफी ऊर्जा का संचार किया है जिससे
उत्साहित होकर वह गुजरात में पिछले 1 महीने से जी तोड़ और जोड़ तोड़ की राजनीतिक
मेहनत कर रही है. गुजरात के चुनाव जितने कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण हैं उससे कहीं
अधिक भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी के लिए महत्वपूर्ण हैं. एक तरफ कांग्रेस को कुछ
खोने का इतना डर नहीं जितना पाने की अभिलाषा है तो दूसरी तरफ भाजपा और मोदी को
गुजरात में अपना वर्चस्व बनाए रखने की ज्यादा चिंता होगी. निश्चित रूप से गुजरात
चुनाव देश के दोनों प्रमुख दलों के लिए अति महत्वपूर्ण हैं. जहां एक ओर भाजपा को
ये चुनाव मोदी की साख को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय
स्तर पर बरकरार रखने के
लिए जीतना जरूरी है तो वही कांग्रेस को राजनीति में
अपनी प्रासंगिकता को दोबारा
पाने के लिए बहुत अहम हैं.
गुजरात में जो राजनीतिक हलचल हुई उससे जितनी
कांग्रेस उत्साहित दिख रही है वह उसे संजीवनी से कम नहीं है. कांग्रेस ने अपनी
रणनीति में बदलाव करते हुए पूरी तरह से जातिवादी कार्ड खेलकर गुजरात के चुनावों को
दिलचस्प बना दिया है. मोदी के मुख्यमंत्रित्वकाल में गुजरात में जातिवाद पर विकास
हावी रहा है. 1995 के
बाद से अपने तीनों कार्यकालों में मोदी ने गुजरात को विकास का ऐसा मॉडल बना दिया
कि जिस के बलबूते 2014 के चुनावों में देश की जनता ने मोदी को न केवल देश की सत्ता
सौंप दी बल्कि आज वे देश के प्रधानमंत्री हैं. असल में पिछले दो-तीन सालों
में हार्दिक पटेल ने गुजरात के पाटीदारों को आरक्षण के नाम पर एकजुट करने में
सफलता पाई जिसकी वजह से भाजपा के सामने आज की स्थिति में कड़ी चुनौती खड़ी हुई है.
जिसका लाभ उठाने के लिए कांग्रेस ने भरपूर कोशिश की है. इसमें कोई शक नहीं की
हार्दिक पटेल ने पाटीदारों को एकजुट करने में सफलता अर्जित की है लेकिन वह एक
अस्थिर और अपरिपक्व युवा के रूप में ही ज्यादा पहचाने जाते हैं. वह कभी ‘आप’ के
खेमे में पहुंचते हैं तो कभी कांग्रेस से चोंचे लड़ाने लगते हैं, जिसका विपरीत असर पाटीदार समाज पर होना लाजमी
दिख रहा है. यही कारण है कि हार्दिक पटेल से कंधा से कंधा मिलाकर पाटीदार आंदोलन
को समर्थन और ऊंचाई पर ले जाने वाले दो युवा नेता वरुण पटेल और रेशमा पटेल ने
हार्दिक का साथ छोड़ कर भाजपा के साथ जाना बेहतर समझा. वस्तुतः यह टूटन हार्दिक की बंदरबाजी नौटंकी के कारण ही
दिखाई देती है.
23 अक्टूबर
को अल्पेश ठाकुर ने गांधीनगर में ‘नवसर्जन
गुजरात जनादेश महा सम्मेलन’ के
बैनर तले राहुल गांधी का साथ देने का एलान किया जिससे भाजपा के सामने असहज स्थिति
उत्पन्न हुई. हालांकि अल्पेश ठाकोर ने कांग्रेस ज्वाइन कर कोई नया काम नहीं किया
है. वह पारिवारिक रूप से कांग्रेसी हैं. अल्पेश ठाकोर 2009 से 2012 तक
पहले भी कांग्रेस के साथ थे. उनके पिता खोडा जी ठाकोर न केवल पुराने कांग्रेसी हैं
बल्कि अभी अहमदाबाद ग्रामीण के अध्यक्ष हैं. यही नहीं अल्पेश ने जिला पंचायत चुनाव
में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और वह हार गए थे. लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि
वह ओबीसी वर्ग के युवा नेता के रूप में रहे हैं. यह गांधीनगर में एकत्र हुई भीड़
को देख कर कहा जा सकता है. एक और दलित संगठन गुजरात में काम कर रहा है जिसके नेता
भी युवा हैं जिनका नाम जिग्नेश मेवाणी है. जिग्नेश भाजपा के कट्टर विरोधी हैं यही
कारण है कि वह गुजरात के विकास मॉडल को खोखला बताकर जनसमर्थन की आकांक्षा रखते हैं.
पिछले 1 सप्ताह में गुजरात में जिस तरह की राजनीति
हुई है वह यह बताने के लिए काफी है कि कांग्रेस किसी भी तरह की उठा पटक कर गुजरात
में सरकार बनाने की जुगत में है. पाटीदार आंदोलन से नेता बने नरेंद्र पटेल के
ड्रामे ने इस बात की कलई खोल कर रख दी है कि भाजपा को घेरने के लिए मोदी विरोधी
किसी भी स्तर तक जा सकते हैं. 22 अक्टूबर रविवार की शाम 7:00 बजे
नरेंद्र पटेल भाजपा में शामिल हुए और उसी दिन रात 11:00 बजे उन्होंने मीडिया को बताया कि भाजपा
में शामिल होने के लिए उन्हें भाजपा ने 1 करोड़ रूपए ऑफर किए और एडवांस के रुप में उन्हें 1 लाख रुपए
दिए गए जिन्हें उन्होंने मीडिया को दिखा कर कहा कि बाकी 90 लाख रुपए
सोमवार को दिए जाने थे. सवाल इस बात का है कि नरेंद्र पटेल ने पूरे एक करोड़
प्राप्त कर मीडिया के सामने जाना उचित क्यों नहीं समझा. पहले उन्होंने कहा कि वे
इसका वीडियो और आडियो मिडिया के सामने रखेंगे लेकिन ऐसा कुछ नहीं बताया गया. बिना
प्रमाण के यह कैसे माना जाए कि नरेंद्र सही बोल रहे हैं. केवल 4 घंटे
के लिए क्या वे भाजपा को बदनाम करने के लिए षडयंत्र नहीं कर रहे थे? आज भाजपा और मोदी जिस ऊँचाई पर है उन्हें
बदनाम करने के लिए कुछ भी किया जाना क्या कोई मुश्किल काम है? यही नहीं गुजरात चुनाव के पहले ही वायर
मीडिया द्वारा अमित शाह के बेटे जय को उनकी संपत्ति के 3सालों में 16000 गुना
बढ़ जाने का आरोप भी इसी मकसद से लगाया गया नहीं माना जाना चाहिए? लेकिन यहां देश का हर नागरिक भाजपा से
अपेक्षा करता है कि इन दोनों ही प्रकरणों की जांच कराई जानी चाहिए और यह खुलासा
होना चाहिए कि कांग्रेस भाजपा को भी अपनी तरह की ही पार्टी बताने का षड्यंत्र कर
रही है जिससे समय रहते जनता के सामने वास्तविकता आ सके.
यह सही है कि बीते कल राहुल गांधी की अल्पेश
ठाकुर के साथ एक शानदार रैली रही लेकिन इससे यह अंदाजा लगाना कि गुजरात में
कांग्रेस की वापसी हो जाएगी कहना पूरी तरह से बचकाना ही होगा. यह भी सही है कि
भाजपा के सामने एंटीइनकंबेंसी की समस्या है किन्तु मोदी की उपलब्धियों के आगे यह
कहीं भी नहीं टिकती. जिन तीन युवा नेताओं के दम पर कांग्रेस को संजीवनी मिली है वह
तीनों हार्दिक पटेल, जिग्नेश
मेवाणी और अल्पेश ठाकुर विपरीत ध्रुवों की राजनीति करते हैं. आज कांग्रेस के राहुल
गांधी इन तीनों नेताओं का नाम लेकर जनता में यह संदेश देना चाहते हैं कि गुजरात का
बड़ा जाति वर्ग पाटीदार, पिछड़ा
वर्ग और दलित समाज इन नेताओं की वजह से उनके साथ खड़ा हो गया है, अजीब सा लगता है. राहुल गांधी पाटीदारों के
आरक्षण का समर्थन करते हैं जबकि कोर्ट के निर्णय के अनुसार किसी भी राज्य में 50% से
अधिक का आरक्षण संभव नहीं है. (हार्दिक के मुताबिक कांग्रेस ने तमिलनाडु की तर्ज
पर पाटीदारों को आरक्षण देने की बात की है.) तब ऐसे में कांग्रेस किस आधार पर
आरक्षण का समर्थन कर रही है. यहां तक जिग्नेश मेवाड़ी का सवाल है वह दलितों की
राजनीति करने वाले युवा हैं. यदि जिग्नेश कांग्रेस का साथ देते हैं तो पूरा दलित
समाज कांग्रेस के पास चला जाएगा ऐसा माना जाना उचित नहीं होगा. फिर दलित और
पाटीदारों के बीच के हितों के टकराव के कारण कैसे इन नेताओं के बीच सहमति बनेगी
देखने वाली बात होगी. तीसरा धड़ा अल्पेश ठाकुर का है जो पूरी तरह ओबीसी आंदोलन के प्रमुख हैं जो किसी भी कीमत पर
ओबीसी को वर्तमान में मिले आरक्षण को बांटने के पक्ष में नहीं होंगे. तब कैसे
कांग्रेस इन तीनों को और उनके समर्थकों को मेनेज करेगी देखने वाली बात होगी.
वस्तुतः यह तीनों ही युवा एक दूसरे के विरोधी राजनीति करने वाले हैं यह सब
कांग्रेस के साथ एक प्लेटफार्म पर खड़े होकर उसका समर्थन भले ही करें लेकिन इनके
अनुयायी पूरी तरह से कांग्रेस के पक्ष में चले जाएंगे ऐसी संभावना दिखाई नहीं
देती. वास्तव में यह सभी युवा सामाजिक आंदोलन के पैरोकारी करते रहे हैं और
कांग्रेस को फायदा पहुंचाने और मोदी का विरोध करने के लिए राहुल के साथ खड़े नजर
आते दिख रहे हैं. लेकिन कांग्रेस को इससे कितना फायदा होगा यह भविष्य ही बताएगा.
क्योंकि जब सामाजिक आंदोलन राजनीतिक आंदोलन की शक्ल अख्तियार कर लेता है तो उसकी
प्रासंगिकता घट जाती है और उसके नेतृत्व करने वालों को सामान्यता कोई लाभ नहीं
मिलता. फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि गुजरात के चुनाव दिलचस्प मोड़ पर
खड़े हैं. गुजरात में कांग्रेस ने मोदी के विकास मॉडल में खामियां बताने और
जातिवादी राजनीति को अपना हथियार बनाया है, लेकिन
यह भी सच्चाई है की गुजरात की जनता मोदी के वैश्विक कद को जानती है. वह अपने नेता
नरेंद्र मोदी को नजरअंदाज कर देगी ऐसी संभावना ना के बराबर है. कांग्रेस कितने भी
जतन कर ले गुजरात में कांटे की टक्कर होने पर भी सरकार भाजपा की ही बनेगी.
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