गुरुवार, 2 नवंबर 2017

कांग्रेस विरोध का एक और मुद्दा


Dr. Hari Krishna Barodiya
डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया


इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश को तोड़ने वाले लोगों को भी अभय दान मिल जाता है. जेएनयू दिल्ली में पिछले वर्ष उमर खालिद और कन्हैया कुमार ने भारत तेरे टुकड़े होंगे- इंशाअल्लाह इंशाअल्लाह, कश्मीर की आजादी तक -जंग रहेगी जंग रहेगी और अफजल हम शर्मिंदा हैं -तेरे कातिल जिंदा हैं जैसे नारे लगाकर यह स्पष्ट कर दिया था की इन जैसी वैचारिक सोच वाले लोग न केवल देश की एकता और अखंडता को चोट पहुंचा रहे हैं बल्कि ये लोग देश के टुकड़े करने और कश्मीर की आजादी के नाम पर पाकिस्तान का समर्थन कर रहे हैं, जो राज्य की कानून व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए काफी है. क्योंकि ये और इनके साथी विश्वविद्यालय में ऐसा
कर रहे थे तब यह दलील दी गई थी कि विश्वविद्यालय तो विचार विमर्श के केंद्र होते
हैं इसलिए उन्होंने कोई अपराध नहीं किया. यही नहीं राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल और डी राजा जैसे राजनेता भी उन के समर्थन में आगे आए थे I यह प्रदर्शन देशवासियों को कभी नहीं भूल पाएगा.आजादी के बाद से जितनी भी सरकारें आई उन सब ने कश्मीर को देश का अभिन्न हिस्सा माना और यह सिलसिला यूपीए के 10 वर्षीय कार्यकाल में भी यथावत रहा. किंतु आखिर ऐसी क्या बात है कि मोदी सरकार के आने के बाद प्राय: हर उस विचार का जो राष्ट्रवादी सोच से जुड़ा होता है विरोधी दल उसका विरोध करना शुरु कर देते हैं. अगर मोदी सरकार दिन को दिन कहती है तो विपक्ष दिन को रात कहना शुरु कर देता है.
कांग्रेस इस बात का दम भरती है कि उसके कार्यकाल में कश्मीर में शांति थी लेकिन उस शांति के पीछे जो बड़ा कारण था वह अलगाववादियों और कट्टरपंथियों की शर्तों के सामने दंडवत करना था. कभी भी कांग्रेस सरकार ने कश्मीरियों की गैरवाजिब मांगों की मुखालफत नहीं की. लेकिन आज के कश्मीर में अलगाववादियों और कट्टरपंथियों को मोदी सरकार का कोई समर्थन नहीं मिल रहा जिसकी वजह से वे बिलबिला रहे हैं. आज हुर्रियत कांफ़्रेंस हो या जेकेएलएफ या कोई दूसरा पाकिस्तान परस्त संगठन केंद्र सरकार के राष्ट्रवादी सोच और कश्मीर पर कठोर नीति के कारण परेशान दिखाई दे रहे हैं. इन पाकिस्तान परस्त अलगाववादियों और कट्टरपंथियों के कारण ही आज कश्मीर ज्यादा अशांत और ज्यादा आतंकी गतिविधियों का केंद्र बना बना हुआ है.
पिछले शनिवार को भारत के पूर्व गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि जम्मू कश्मीर के लोगों से बातचीत के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि जब भी कश्मीरी लोग आजादी की मांग करते हैं तो ज्यादातर लोगों का मतलब अधिक स्वायत्तता से होता है. चिदंबरम ने कहा कि जम्मू-कश्मीर में क्षेत्रीय स्वायत्तता देने के बारे में विचार करना चाहिए. स्वायत्तता देने के बावजूद वह भारत का ही हिस्सा रहेंगे.पी चिदंबरम के बयान से यह लगता है कि कश्मीरियों को धारा 370 और अनुच्छेद 35ए के द्वारा दी गई स्वायत्तता पर्याप्त नहीं है जबकि होना यह चाहिए कि ये दोनों प्रावधान खत्म कर कश्मीर को पूरे देशवासियों के लिए मुक्त कर देना चाहिए. आश्चर्य होता है कि संविधान के द्वारा दी गई यह स्वायत्तता चिदंबरम जी को पर्याप्त नहीं लग रही. यदि ऐसा ही था तो जब वह सत्ता में गृह मंत्रालय संभाल रहे थे तब उनके दिमाग में यह क्यों नहीं आया. लगता तो यह है कि उन्होंने अवसर विशेष को भुनाने के लिए ऐसा बयान दिया. जब जम्मूकश्मीर सरकार ने अध्यादेश लागू कर सरकारी या गैर सरकारी संपत्ति को हानि पहुंचाने वालों को से साल तक की कैद और नुकसान की भरपाई उनकी निजी संपत्ति से वसूल करने का कानून बनाया तो स्वाभाविक है इस बात से अलगाववादी और कट्टरपंथियों का गुस्सा चरम पर है तब ऐसे में  इन्हें अपने पाले में बनाए रखने के लिए यह बयान जानबूझकर दिया गया लगता है. वहीँ यह भी कि यह बयान उस अवसर पर आया है जब सरकार ने कश्मीर के लोगों से बातचीत करने के लिए इंटेलिजेंस ब्यूरो के पूर्व निदेशक दिनेश्वर शर्मा को नियुक्त किया है. यह दोनों ही निर्णय स्वाभाविक रूप से अलगाववादियों और कट्टरपंथियों को रास आने वाले नहीं हैं, ऐसे समय में चिदंबरम जी का बयान सरकार के कश्मीर में शांति बहाली के प्रयत्नों में अवरोध पैदा करने के लिए क्या काफी नहीं हैं. उनका यह बयान कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति को बल देने के प्रयास के रूप में भी क्यों ना देखा जाए. वस्तुतः इस बयान ने कश्मीर में आग में घी डालने का काम किया है जिसकी वजह से न केवल अलगाववादी बल्कि कुछ सियासी दल भी वहाँ हिंसक आंदोलन की बात करने लगे हैं. यही नहीं यह बयान ऐसे मौके पर भी आया है जब अनुच्छेद 35 ए पर सुप्रीम कोर्ट में बहस होना थी जो फ़िलहाल 8 हफ़्तों के लिए टाल दी गई है. कहने का तात्पर्य है पी चिदंबरम ने अपने इस एक बयान से कई कई निशाने साधे किंतु उनका यह बयान ना केवल उन्हें बल्कि कांग्रेस को भारी पड़ता लग रहा है. यही कारण है की रणदीप सुरजेवाला ने हमेशा की तरह यही दोहराया कि चिदंबरम जी का बयान उनका निजी बयान है और कांग्रेस इससे सहमत नहीं है. लेकिन कहते हैं कि जुबान से निकले शब्द और तरकस से निकला तीर वापस नहीं आते उसी तरह यह बयान कांग्रेस को हिमाचल और गुजरात में भारी पड़ेगा इसमें संदेह नहीं. चिदंबरम जब यह कहते हैं कि कश्मीरियों की आजादी की मांग का मतलब अधिक स्वायत्तता से है तो क्या यह नहीं माना जाना चाहिए की आपकी स्वायत्तता देने की मांग का मतलब आजादी देने से है. लगता ऐसा है कि चिदंबरम कश्मीर को आजाद करने के पक्ष में हैं. वस्तुतः उनके इस बयान ने  कश्मीरियों को उकसाने का जो काम किया है वह देशवासियों को कभी मान्य नहीं होगा. चिदंबरम ने बैठे ठाले, लोगों और सत्ता पक्ष को कांग्रेस विरोध का एक मुद्दा और दे दिया जिसका नुकसान कांग्रेस को हिमाचल और गुजरात में उठाना पड़ सकता है. यही कारण है कि कांग्रेस ने उन्हें चुप रहने की सलाह दी है. लेकिन इतना तो तय है कि पी चिदंबरम के बयान ने कश्मीर की शांति बहाली के प्रयासों को पटरी से उतारने का काम किया है, जो बेहद दुखद है.


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें