8 नवंबर का दिन तब तक याद रखा जाएगा जब तक देश में दूसरी
नोटबंदी नहीं होगी. पिछले साल प्रधानमंत्री मोदी ने अचानक और दूरगामी सोच के साथ 500 और 1000 के नोटों के चलन पर रोक लगा
दी थी जिसकी देश में किसी भी व्यक्ति, किसी भी राजनीतिक दल और यहां तक कि किसी अर्थशास्त्री को
सपने में भी उम्मीद नहीं थी. निसंदेह उसके बाद देशभर में अफरा-तफरी मची. बैंक में
नोट बदलवाने के लिए हजारों लोगों की लाइन में लगी आम आदमी परेशान हुआ लगभग. एक महीने से अधिक समय तक लोगों
को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में कठिनाई भी हुई. लेकिन 2016 से 2017 के इस एक साल में देश के
विपक्ष की लाख कोशिशों के बाद भी देश की सवा सौ करोड़ जनता प्रधानमंत्री के इस
कठोर लेकिन लोक हित में लिए गए फैसले के साथ खड़ी रही, क्योंकि प्रधानमंत्री ने
यह निर्णय कालाधन, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद, मनी लांड्रिंग, हवाला कारोबार और नकली करंसी के खिलाफ उठाया था. लगता है कि आज मोदी के इस निर्णय से देश की सभी विपक्षी पार्टियां दुखी हैं. 8 नवंबर 2016 के बाद विपक्षी पार्टियों को ऐसा लग रहा था कि उन्हें अपनी वापसी करने के लिए मोदी ने नोटबंदी कर ऐसा अवसर दे दिया कि वे उसे भुनाकर मोदी और भाजपा की लोकप्रियता तथा सत्ताधारी दल को बैकफुट पर धकेल देंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. विपक्षी दलों ने इस हेतु नवंबर 2016 के बाद लगातार कोशिश की, लेकिन पूरे देश की जनता ने उनकी किसी बात का समर्थन नहीं किया. देशभर में ना कोई धरना-प्रदर्शन हुआ, ना कोई आंदोलन हुआ और ना कोई दंगा फसाद. इससे यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि लोगों ने न केवल भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ मोदी सरकार का पूरे मन से समर्थन किया बल्कि नोटबंदी के विरोध करने वालों को विभिन्न चुनावों में सबक भी सिखाया. उत्तर प्रदेश के चुनाव इस बात का प्रमाण हैं.
कठोर लेकिन लोक हित में लिए गए फैसले के साथ खड़ी रही, क्योंकि प्रधानमंत्री ने
यह निर्णय कालाधन, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद, मनी लांड्रिंग, हवाला कारोबार और नकली करंसी के खिलाफ उठाया था. लगता है कि आज मोदी के इस निर्णय से देश की सभी विपक्षी पार्टियां दुखी हैं. 8 नवंबर 2016 के बाद विपक्षी पार्टियों को ऐसा लग रहा था कि उन्हें अपनी वापसी करने के लिए मोदी ने नोटबंदी कर ऐसा अवसर दे दिया कि वे उसे भुनाकर मोदी और भाजपा की लोकप्रियता तथा सत्ताधारी दल को बैकफुट पर धकेल देंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. विपक्षी दलों ने इस हेतु नवंबर 2016 के बाद लगातार कोशिश की, लेकिन पूरे देश की जनता ने उनकी किसी बात का समर्थन नहीं किया. देशभर में ना कोई धरना-प्रदर्शन हुआ, ना कोई आंदोलन हुआ और ना कोई दंगा फसाद. इससे यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि लोगों ने न केवल भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ मोदी सरकार का पूरे मन से समर्थन किया बल्कि नोटबंदी के विरोध करने वालों को विभिन्न चुनावों में सबक भी सिखाया. उत्तर प्रदेश के चुनाव इस बात का प्रमाण हैं.
देश के लगभग 90% से अधिक लोगों ने यह तो स्वीकार किया कि नोटबंदी से उन्हें
बहुत परेशानी हुई, घंटों
लाइन में खड़ा रहना पड़ा किंतु हर व्यक्ति ने इसे प्रधानमंत्री का अच्छा और देशहित
में उठाया गया कदम निरूपित किया. आज भी अधिकांश लोग यही कहते मिलेंगे कि यह
भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ एक अच्छा निर्णय था. आम जनता, स्वतंत्र अर्थव्यवस्था, आर्थिक वृद्धि और आर्थिक मंदी को नहीं
जानती. वह केवल इतना जानती है कि उसके हाथ में जितना पैसा है वह उससे अपनी
आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है. नवंबर 16 में शुरू के दो महीने छोड़ दें तो आम जनता
को कोई परेशानी महसूस नहीं हुई.
यह जानते हुए भी कि नोटबंदी देश की जनता
द्वारा समर्थित मुद्दा है विपक्ष आज भी जी तोड़ कोशिश कर रहा है कि लोगों को नोटबंदी की कमियां बताकर जनता
का विश्वास जीता जाए. किंतु विपक्ष जितना नोटबंदी का विरोध कर रहा है जनता में यह
विश्वास मजबूत होता जा रहा है कि विरोध करने वालों का कालाधन ठिकाने लग गया इसलिए
इसका यह रुदन उन को प्रभावित नहीं कर रहा.
गुजरात के चुनाव में भी कांग्रेस नोटबंदी
को हर मंच से जितना धिक्कार रही है उतना ही लोगों का प्रधानमंत्री पर विश्वास बढ़
रहा है. इस बात को विपक्षी दल जानते हुए भी नहीं जान पा रहे हैं. देश के पूर्व
प्रधानमंत्री और जाने-माने अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह का यह बयान पढ़कर कि
‘नोटबंदी संगठित लूट और भूल है’ लगा कि नोटबंदी और कुछ भी हो सकती है
लेकिन यह किसी भी दशा में संगठित लूट तो नहीं हो सकती. कांग्रेस के थिंक टैंक के
पास तो ऐसे लोगों का सर्वथा अभाव है जो अपनी बात सीधे और सरल शब्दों में कह सके.
जो भी बात वह कह रहे हैं या कहलवा रहे हैं, वह मोदी को उतना ही मजबूत कर रही है. कांग्रेस जब नोटबंदी
को लूट कह रही है तो वित्त मंत्री अरुण जेटली का यह कथन कि ‘अगर नोटबंदी लूट है तो कोयला घोटाला और 2जी घोटाले क्या थे, ज्यादा प्रभावी और दिल में उतर जाते हैं. पढ़े लिखे लोगों
को माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्या नडेला की टिप्पणी ज्यादा पसंद आती है कि ‘नोटबंदी एक फैंटास्टिक आइडिया है, इससे देश की इकॉनमी को अच्छा रिजल्ट मिल
सकता है.’ हाल ही में अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार
से सम्मानित अमेरिकी अर्थशास्त्री रिचर्ड एच थेलर ने भारत में जनकल्याणकारी आर्थिक
दृष्टिकोण से नोटबंदी को सकारात्मक बताया है. ऐसे में कांग्रेस का नोटबंदी का
विरोध, विरोध के लिए विरोध करना ही लगता है. जब
ममता बनर्जी कहती हैं कि ‘नोटबंदी
शैतान का कृत्य था, तो लगता
है कि पता नहीं उनकी पार्टी का कितना कालाधन नोटबंदी की बलि चढ़ गया कि वे इसे
शैतान का काम मानती हैं.
ममता की तुलना में गुरुग्राम के उस 80 वर्षीय एक्स आर्मी मैन नंदलाल की बात (जो नवंबर 16 में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की ब्रांच में पैसे जमा करने गए
थे लाइन में लगे लगे परेशान होकर फूट-फूट कर रोए थे और जिन्हें नोटबंदी विरोधियों
ने प्रचार के लिए पोस्टर बॉय बनाया था) ज्यादा प्रभावित करती है जो आज कह रहे हैं
कि ‘सरकार के काम से वे खुश हैं’. वह कहते हैं ‘सरकार जो भी करती है वह देश की भलाई के
लिए होता है’, मैं एक रिटायर्ड सैनिक हूं
और सरकार के हर फैसले के साथ हूं.’ वस्तुतः कांग्रेस के लोगों को बिल्कुल नहीं मालूम कि वे जो
कहते हैं जनता में उसका विपरीत असर हो रहा है. संजय निरुपम ने मोदी के हिमाचल में
दी एक भाषण पर कटाक्ष करते हुए एक बयान में कहा कि ‘लगता है प्रधानमंत्री को कोई मानसिक बीमारी है, भारत सरकार को उनका एम्स में जल्दी इलाज
कराना चाहिए.’ कांग्रेसी भले ही निरुपम की
वाहवाही करें लेकिन वे जो कह रहे हैं उसका जनता पर विपरीत असर होने वाला है.
कांग्रेस को यह भी समझ नहीं आ रहा है की विश्व बैंक मोदी की अर्थनीति की तारीफ कर
रहा है, तब तो कम से कम वह अपनी राजनीतिक सूझबूझ
को दुरुस्त करें.
इकोनॉमिक टाइम्स के 10000 लोगों से किए गए ऑनलाइन सर्वे के परिणाम
बताते हैं कि नोटबंदी के एक साल बाद भी लोगों को पीएम
का नोटबंदी का यह निर्णय अच्छा लगता है. 32 प्रतिशत लोग मानते हैं कि
नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था को पारदर्शी बनाया है तो वहीँ 42% लोग इसे आंशिक नुकसान के साथ अर्थव्यवस्था को पारदर्शी
मानते हैं, तो केवल 26 प्रतिशत लोग इसे दीर्घ अवधि में नुकसानदेह बताते हैं.
इसी तरह पर 38 प्रतिशत लोग इसे सफल मानते हैं, 30 प्रतिशत इसे मिला जुला परिणाम तो केवल 32 प्रतिशत लोग इसे असफल मानते हैं. 56% मानते हैं कि इससे काला धन वालों पर कठोर प्रहार हुआ है तो 31 प्रतिशत के अनुसार इस से आर्थिक वृद्धि दर घटेगी तो केवल 13 प्रतिशत मानते हैं किसका ईमानदार लोगों पर विपरीत असर होगा.
71 प्रतिशत लोगों का मानना है कि इसका मूल उद्देश्य
अर्थव्यवस्था से कालेधन को कम करना था जबकि 15% लोगों का मानना था कि यह
केवल गरीबों के वोट पाने के लिए की गई तो मात्र 14% लोगों का
मानना था कि यह साम्प्रदायिक दंगों से ध्यान हटाने के लिए था. अगर पूरे सर्वे के
निष्कर्षों की बात करें तो इकोनॉमिक्स टाइम्स कहता है कि नोटबंदी थोड़े समय के लिए
तकलीफदेह हो सकती है, लेकिन
प्रधानमंत्री मोदी ने यह कदम लोकहित में उठाया है और इससे अर्थव्यवस्था को कोई
नुकसान नहीं होगा. कुल मिलाकर नोटबंदी का निर्णय देश की जनता अपने हित में देखती
है भले ही मोदी विरोधी कितना भी विरोध करें.
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