सोमवार, 18 दिसंबर 2017

गुजरात की यह जीत भाजपा के लिए आसान नहीं रही

डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया

इसमें कोई शक नहीं कि हिमाचल प्रदेश और गुजरात में भाजपा ने जीत दर्ज कर ली है. हिमाचल प्रदेश का चुनावी ट्रेंड हमेशा से बदल बदल कर पार्टियों को सत्ता सौंपने का रहा है और पिछले 5 साल तक क्योंकि कांग्रेस वहाँ सत्ता में थी इसलिए पूर्वानुमान था कि इस बार भाजपा बड़े अंतर से प्रदेश में सरकार बनाएगी और यह पूर्वानुमान सच साबित हुआ. भाजपा ने 68 सीटों वाली विधानसभा में 44 सीटों पर  जीत दर्ज कर दो  तिहाई बहुमत प्राप्त कर लिया और इसी के साथ एक और राज्य कांग्रेस से छीन लिया.
 लेकिन सबसे महत्वपूर्ण चुनाव इस दशक के अगर कहीं के थे तो वह गुजरात विधानसभा के ही थे. गुजरात के चुनाव भाजपा के लिए कठिन एवं चुनौतीपूर्ण थे क्योंकि एक तो वहां पिछले 22 साल से भाजपा सत्ता पर काबिज थी इसलिए सबसे बड़ा डर यदि कोई था तो वह एंटी इनकंबेंसी का था. किसी राज्य में कोई सरकार 22 साल से सत्ता पर काबिज हो और उस सरकार के प्रति कोई आक्रोश ना हो यह संभव नहीं है. ऐसे में सबसे बड़ी परीक्षा यदि कोई थी तो भाजपा की यही थी कि वह कैसे इस एंटी इनकंबेंसी को अपने पक्ष में मोड़ती. दूसरी ओर गुजरात के चुनाव प्रधानमंत्री मोदी की प्रतिष्ठा से जुड़े हुए थे. गुजराती मोदी जो ना केवल देश के प्रधानमंत्री हैं बल्कि जिनकी आज अंतरराष्ट्रीय छवि है उनके लिए गुजरात के चुनाव अत्यंत महत्वपूर्ण थे. वहीं कांग्रेस के लिए भी यह चुनाव इसलिए ज्यादा महत्व के थे कि एक तो कांग्रेस अब तक राहुल की अगुवाई में 29 चुनाव लगातार हारती रही है तो दूसरी ओर उसके पास ऐसा मौका था कि यदि वह चुनाव जीतती तो उसे यह कहने का और जताने का मौका मिलता कि नरेंद्र मोदी को गुजरातियों ने नकार दिया जिससे 2019 के लोकसभा चुनावों की राह उसे आसान होती. वस्तुतः गुजरात की यह जीत भाजपा के लिए आसान नहीं रही. लेकिन इस बात को मानना पड़ेगा कि विपरीत परिस्थितियों में भी गुजरात की जनता ने मोदी जी में अपना विश्वास व्यक्त किया.

 परिणाम दर्शाते हैं कि 2012 में भाजपा के पास 115 विधायक थे जिनकी संख्या घटकर अब 99 हो गई है. 2014 में लोकसभा की सभी सीटों पर भाजपा ने अपना वर्चस्व कायम किया था तब स्वाभाविक है कि भाजपा की यह जीत उतनी प्रभावकारी नहीं कही जा सकती. अगर गहराई से विश्लेषण किया जाए तो एक बात स्पष्ट हो जाती है कि कांग्रेस ने इस बार गुजरात में नए सॉफ्ट हिंदुत्व का कार्ड खेलकर भाजपा के गढ़ में सेंधमारी करने की कोशिश तो की लेकिन उसे उतनी सफलता नहीं मिली जिससे कि वह गुजरात में सरकार बनाने जितना बहुमत अर्जित कर पाती. इसमें कोई संदेह नहीं कि कांग्रेस ने इस चुनाव में लुभाने वाले अहम मुद्दों को उठा कर भाजपा के सामने चुनौती खड़ी करी. नोटबंदी और जीएसटी दो ऐसे मुद्दे थे जिन पर पूरे गुजरात में चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस ने जनता को अपने पक्ष में करने की कोशिश की लेकिन इन दोनों मुद्दों पर जनता ने कांग्रेस को उतना समर्थन नहीं दिया जितनी कांग्रेस को अपेक्षा थी. वस्तुतः नोटबंदी का मुद्दा जनता की उस आकांक्षा से जुड़ा हुआ था जिसमें वह चाहती रही कि देश से काले धन का सफाया होना चाहिए जिस पर 8 नवंबर 2016 से लगातार जनता ने विषम परिस्थितियों में भी कई महीनों न केवल धैर्य बनाए रखा बल्कि कोई आक्रोश भी नहीं दर्शाया. इसलिए कांग्रेस का यह मुद्दा इतना कारगर नहीं हुआ. दूसरा अहम मुद्दा गुड्स सर्विस टैक्स का था. जीएसटी भाजपा का ऐसा निर्णय था जिस पर देश भर में व्यापारियों में असंतोष था. अकेले गुजरात में सूरत, राजकोट, बड़ोदरा और अहमदाबाद में व्यापारियों का गुस्सा इतना अधिक रहा था की इन शहरों में जीएसटी के विरोध में कई दिनों तक व्यापारियों ने व्यापार ठप किया था. कांग्रेस सोच रही थी कि चूँकि व्यापारी जीएसटी के विरोध में है इसलिए उसे भाजपा विरोध का फायदा मिल सकता है, उसने जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स की संज्ञा देकर उन्हें अपने पाले में लाने का प्रयत्न किया किंतु परिणाम यह दर्शाते हैं कि व्यापारिक क्षेत्रों में भाजपा के प्रति कोई नाराजगी नहीं दिखी. लेकिन यह करिश्मा केवल इसलिए नहीं था की जनता को इससे कोई परेशानी नहीं थी बल्कि इसलिए हुआ कि गुजरात की जनता को अपने नेता नरेंद्र मोदी की नीयत में कोई शक नहीं था. गुजरात ही नहीं बल्कि पूरे देश की जनता इस बात को मानती है कि मोदी ने यह दो कदम देश की जनता की भलाई के लिए ही उठाए हैं. कांग्रेस ने निसंदेह गुजरात के चुनाव में अब तक हारे 29 चुनावों से अलग हटकर इस चुनाव में अपनी वापसी के लिए भागीरथी प्रयत्न किए. उसने 3 युवाओं अल्पेश, जिग्नेश और हार्दिक के आंदोलनों को तरजीह देकर सत्ता पाने की पूरी कोशिश की और देखा जाए तो उसे सफलता भी मिली यही कारण है कि उसकी सीटों में इजाफा हुआ. लेकिन यह भी एक तथ्य है कि गुजरात की जनता को मोदी में अटूट विश्वास है. व्यापक दृष्टिकोण से विचार किया जाए तो कांग्रेस की हार भी उसमें संजीवनी का संचार कर गई. लगातार होने वाली एकतरफा पराजयों के बीच उसकी अपने सहयोगियों के साथ मिलकर सॉफ्ट हिंदुत्व और जनता से जुड़े मुद्दे यथा अशिक्षा, कृषि, गरीबी, पिछड़ापन और बेरोजगारी आदि ऐसे शाश्वत मुद्दे हैं जो हर सरकार के विरुद्ध कमोबेश कारगर रहते हैं क्योंकि इन समस्याओं को हल करने में कोई भी सरकार ना तो शत प्रतिशत सफलता पा सकती है और ना ही जनता को संतुष्ट कर पाती है. वस्तुतः भाजपा की यह जीत नरेंद्र मोदी और अमित शाह की रणनीतिक जीत के साथ उनके प्रति गुजराती जनता का प्रेम ही कहा जाएगा. हालांकि परिणाम बताते हैं कि जहां एक ओर भाजपा को शहरी क्षेत्रों में जितना व्यापक समर्थन मिला इसकी तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में उसे असफलता मिली. ग्रामीण क्षेत्रों से भाजपा का जनाधार खिसकना किसी भी दशा में 2019 के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता. सौराष्ट्र और कच्छ के मतदाताओं ने भाजपा के विकास के मजबूत दावों को एक तरह से नकार दिया. लेकिन इस सब के बावजूद भी भाजपा की जीत यह स्पष्ट करती है कि गुजरात की जनता ने ना केवल मोदी के सम्मान को बरकरार रहा रखा बल्कि उनकी अंतरराष्ट्रीय छवि पर आंच नहीं आने दी. कांग्रेस हालांकि सत्ता प्राप्त नहीं कर सकी लेकिन उसने हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश के कंधों पर जुआ रखकर यह लड़ाई लड़ी जिसमें उसने अपने जनाधार को कुछ अंशों में ही सही मजबूत तो किया है. कांग्रेस का 2012 की तुलना में वोट शेयर बढ़ना उसमें नई शक्ति का संचार माना जा सकता है. लेकिन कांग्रेस की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में रही क्योंकि पाटीदारों के आरक्षण के मामले में यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया था कि कांग्रेस पाटीदार मतदाताओं के साथ छल कर रही थी. जब संवैधानिक दृष्टि से 50% से अधिक आरक्षण दिया जाना संभव ही नहीं था तो उसके द्वारा सुझाया गया फार्मूला किसी भी दृष्टि से पाटीदारों को आरक्षण दिलाने में असफल सिद्ध होता. वस्तुतः पाटीदारों का अनामत आंदोलन मूलतः हार्दिक की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के रूप में ज्यादा प्रचारित हुआ. राहुल की रैलियों में भीड़ बहुत रही लेकिन वह वोटों में तब्दील नहीं हो सकी क्योंकि भीड़ जुटने का मतलब हमेशा वोट मिलना नहीं होता. निसंदेह सारे अवरोधों के बाद भी भाजपा की जीत ने मोदी के कद में इजाफा किया है. 2014 के बाद आज भारत के 15 राज्यों में भाजपा की स्वयं की सत्ता है तो चार राज्यों में उसके सहयोगी दलों की सहभागिता से भाजपा सत्ता पर काबिल है जो मोदी की विश्वसनीयता और साफ-सुथरी छवि को स्पष्ट करती है.

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