गुरुवार, 4 जनवरी 2018

हिंदू समाज को बांटकर 2019 में वापसी करना चाहती है कांग्रेस

डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया

जब से देश में मोदी सत्ता में आए हैं तब से देश का समूचा विपक्ष सत्ता में वापसी के लिए हर हथकंडे अपनाने की जुगत में लगा हुआ है. राजनीति में यूं भी  ‘एवरीथिंग इज़ फेयर इन लव एंड वार’ का फंडा काम करता है. इसलिए यह मानकर चला जाना कि कांग्रेस और सत्ताविरोधी सभी राजनीतिक दल सत्ता पाने के लिए शुचिता पूर्ण राजनीति करेंगे संभव नहीं. 2014 में जब मोदी सत्ता में आए तब कमोबेश देश में कांग्रेस के विरुद्ध लोगों में असीमित आक्रोश था. कांग्रेस का

भ्रष्टाचारी शासन, मुस्लिम तुष्टिकरण, गई गुजरी विदेश नीति, पाकिस्तान के प्रति असीमित सहनशीलता, कालेधन का प्रसार, भाई भतीजावाद, घोटालों में लिप्तता  और हिंदू हितों की अनदेखी जैसे कई कारण थे कि देश की जनता ने उसे उखाड़ फेंका. मोदी का सत्ता में आना महज संयोग नहीं था. उनका सबका साथ, सबका विकास और कांग्रेस मुक्त भारत जैसे नारों ने देश की जनता में एक आश जगाई जिसका नतीजा यह हुआ कि पूरे देश में मोदी की आंधी से विपक्ष इतना सिकुड़ गया कि संसद में उसकी पहचान उंगलियों पर गिने जाने जितनी हो गई.
 पिछले महीने हुए 2 राज्यों, हिमाचल और गुजरात में पुनः भाजपा की जीत ने कांग्रेस को तगड़ा झटका दिया. निश्चित रूप से हिमाचल में तो कांग्रेस ने मैदान ही छोड़ दिया था किंतु उसने गुजरात में गुजरात के आक्रोशित युवा नेताओं अल्पेश जिग्नेश और हार्दिक के साथ मिलकर अपनी लगातार गिरती हुई साख को संभालने में कुछ हद तक सफलता अर्जित की. इन तीनों युवा नेताओं की राजनीति पूर्णत: जातिगत समीकरणों पर आधारित थी. जहां एक ओर अल्पेश और जिग्नेश पिछड़े  और दलितों को साध रहे थे तो हार्दिक पाटीदारों को आरक्षण दिलाने के लिए नेतृत्व कर रहे थे. कांग्रेस को इन तीनों नेताओं के सहारे ने पिछली विधानसभा में 62 सीटों से इस विधानसभा में 80 सीटों तक पहुंचाने में मदद की. कांग्रेस यद्दपि सत्ता के आंकड़े तक नहीं पहुंच सकी लेकिन उसे लगने लगा कि यदि अगड़ों, पिछड़ों, दलितों और जातियों को साध कर सत्ता विरोधी राजनीति की जाए तो 2019 के चुनाव में ज्यादा सफलता अर्जित की जा सकती है. यही कारण है कि जहां एक ओर राहुल मंदिर मंदिर गए वहीं देश में जातीय संघर्ष को उकसाने का काम किया गया.
 इसका ताजा उदाहरण महाराष्ट्र में उपजी जातीय हिंसा है. दरअसल महाराष्ट्र में पुणे जिले के भीमा कोरेगांव में कई दशकों से शौर्य दिवस मनाया जाता है. यह दिवस पुणे के बाजीराव पेशवा द्वितीय की सेना को दलितों के अंग्रेजो के साथ मिलकर हराने की याद में आयोजित किया जाता है. दलित वर्ग (महार जाति) हर साल इसकी वर्षगांठ शौर्य दिवस के रूप में मनाती है. लेकिन इस साल की 1 जनवरी को मनाए जाने वाले इस आयोजन का कुछ संगठनों ने विरोध किया. जिससे महार व मराठा लोगों के बीच संघर्ष हुआ. जिससे हिंसा भड़क गई, जिसकी आंच पुणे से निकलकर महाराष्ट्र के कई जिलों में फैल गई. इसका परिणाम यह हुआ कि कई क्षेत्रों में ना केवल उपद्रव और आगजनी हुई बल्कि शासकीय संपत्ति को नुकसान पहुंचा. वाहनों व दुकानों में तोड़फोड़ की गई, ट्रेनें रोक दी गईं. आज से पहले तक इस अवसर पर कभी कोई हिंसा नहीं हुई लेकिन इस बार हिंसा होने का कारण पूर्णत: राजनीति से प्रेरित रहा. इस जातीय संघर्ष को हवा देने में मोदी विरोधी जमातों ने खुल कर हिस्सा लिया, अन्यथा कोई कारण नहीं था कि इस जश्न के अवसर पर जेएनयू में भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह- इंशा अल्लाह के नारे लगाने वाला देशद्रोही उमर खालिद मौजूद होता.
 वस्तुतः मोदी के सत्ता में आने का एकमात्र कारण हिंदुओं की 2014 में जबरदस्त एकता थी. इसी एकता को तोड़ने के लिए आज देश में हिंदुओं को जातीय आधार पर बांटने की पुरजोर कोशिश की जा रही है. महाराष्ट्र में भी भाजपा के लगातार बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए जिग्नेश, उमर खालिद और रोहित वेमुला की मां राधिका वेमुला उपस्थित थे. जिन्होंने जातीय संघर्ष को भड़काने में अहम भूमिका निभाई. दलितों की भीड़ में शामिल होकर असामाजिक तत्वों ने भी गैर दलितों को भड़काने का काम किया जिससे हिंसा भड़की. यही नहीं अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए हिंदू समाज को तोड़ने के लिए दलितों को ऐसा प्रस्तुत किया जा रहा है कि वह दलित हैं ना कि हिंदू. इस सब के पीछे कांग्रेस और विरोधियों की सत्ता प्राप्त करने की छटपटाहट स्पष्ट दिखाई देती है. 2016 के बाद जिन राज्यों में भाजपा सत्ता में है केवल उन राज्यों में जातीय हिंसा का लगातार होना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि दाल में कुछ काला जरूर है.
आज कांग्रेस अपनी स्थिति को पटरी पर लाने के लिए हर उस आंदोलन को समर्थन दे रही है जो सत्ता से आंशिक असंतोष और अपने हितों को साधने के लिए प्राय: होते रहते हैं. इन आंदोलनों का दुखद पहलू आज यह है कि यह जातीय हिंसा में तब्दील हो रहे हैं. कांग्रेस, वामपंथी और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के समर्थन देने के कारण शांतिप्रिय आंदोलनों में हिंसा भड़क रही है. इस हिंसा को भड़काने के लिए युवा नेताओं को मोहरा बनाया जा रहा है. हिंदू समाज में जातीय भेद करा कर एक जाति को दूसरी जाति के खिलाफ उकसाया जा रहा है और यह उकसावे की कार्यवाही न केवल जातीय वर्ग के नेताओं के द्वारा की जा रही है बल्कि उन असामाजिक तत्वों द्वारा भी की जा रही है जिन पर भाजपा सरकार  नकेल कसती रही है. देश की सत्ता विरोधी जमात यह अच्छी तरह जानती है कि यदि हिंदू एकजुट रहेगा तो लंबे समय तक वह सत्ता में वापसी नहीं कर सकते. यही कारण है कि कांग्रेस हिंदुओं को जातियों में बांटने को अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति के तहत, फूट डालो और सत्ता पाओ के मिशन पर काम कर रही है.
 कांग्रेस की छटपटाहट इसी से उजागर होती है कि 2016 में मणिशंकर अय्यर पाकिस्तान में मोदी को हटाने की गुहार करते हैं. 2014 से 2016 के बीच किसी तरह के देश में जातीय संघर्ष नहीं थे किंतु 2017 में इन में बढ़ोतरी इस बात का प्रमाण है कि कांग्रेस अब हिंदू समाज को जातीय खंडों में विभाजित कर 2019 की राह आसान करने में जुट गई है. भारत में भाजपा को सत्ता से बेदखल करने के लिए पाकिस्तान भी छटपटा रहा है. भारत के मुसलमान भी मोदी को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं. यही कारण है कि देश के सारे मुस्लिम संगठन मोदी के खिलाफ एकजुट हैं. पाकिस्तान का भी भारत के सत्ता विरोधी दलों को मोदी को हटाने का न केवल परोक्ष समर्थन है बल्कि वहां के लोग भी इस काम में अपना समर्थन और सलाह दे रहे हैं. अन्यथा कोई कारण नहीं था कि पाकिस्तान के रक्षा मामलों के जानकार तारिक पीरजादा यह ट्वीट करते कि ‘मोदी को हटाने का, सिवाय इसके कि हिंदुओं को जातियों में विभाजित किया जाए दूसरा कोई रास्ता नहीं है. मैं आशा करता हूं कि अरविंद केजरीवाल और राहुल गांधी यह काम करेंगे.
 2018 में देश के 8 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. स्वाभाविक है कि इन राज्यों में भी कांग्रेस, वामपंथी और मोदी विरोधी दल और राजनेता हिंदुओं को बांटने में कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे. वस्तुतः इसकी शुरुआत गुजरात और महाराष्ट्र से हो चुकी है. कांग्रेस का लक्ष्य ना केवल 2018 के राज्यों के चुनावों में अपनी पकड़ मजबूत करने की है बल्कि इन चुनावों के परिणामों से 2019 के बड़े लक्ष्य को हासिल करने की कोशिश भी है. इस काम को राहुल गांधी और उनके द्वारा समर्थित जिग्नेश और उमर खालिद जैसे नेता भड़काऊ बयानों से अंजाम दे रहे हैं. वे हिंदुओं और दलितों को अलग करने का काम बड़ी शिद्दत से कर रहे हैं. राहुल गांधी के एक ट्वीट से स्पष्ट होता है कि वह देश को जातीय टुकड़ों में बांट रहे हैं जिसमें वे कहते हैं कि ‘भाजपा और आरएसएस की भारत के लिए फासिस्ट सोच यह है कि दलित हमेशा भारतीय समाज में निचले स्तर पर बना रहे. ऊना, रोहित वेमुला और भीमा कोरेगांव में दलितों को दबाने के यह स्पष्ट प्रतीक हैं.’ कहना ना होगा कि कांग्रेस ने सारी ऊर्जा देश के हिंदुओं को आपस में लड़ाने में लगाना शुरू कर दी है और इसके लिए जहां-जहां और जिस राज्य में सरकार के विरुद्ध थोड़ा बहुत असंतोष दिखाई देता है वहां वह आग को भड़काने का काम करने को तैयार बैठी है. अब यह देश के हिंदुओं को सोचना है कि वे एकजुट रहें  या बिखर जाएं. कांग्रेस जानती है कि वह अकेले दम पर कई दशकों तक सत्ता में वापसी नहीं कर सकती यही कारण है कि उसने जातीय नेताओं की वैशाखी पकड़ ली. 

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