गुरुवार, 30 जुलाई 2020

राहुल जी नकारात्मक चिंतन के सकारात्मक परिणाम नहीं होते


      राहुल जी नकारात्मक चिंतन के सकारात्मक परिणाम नहीं होते
                     डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया
       किसी व्यक्ति की छवि बिगाड़ने के लिए आपको तर्कों के स्थान पर कुतर्कों का सहारा लेना पड़ता है, आपको सच के स्थान पर झूठ का सहारा लेना पड़ता है, आपको समालोचना के स्थान पर अनावश्यक आलोचना के लिए तथ्यों को तोड़ना मरोड़ना पड़ता है। इतना सब होने के बाद भी आवश्यक नहीं की उस व्यक्ति की छवि बिगड़ ही जाए। भारतीय राजनीति में आजकल देश के प्रधानमंत्री की छवि बिगाड़ने का असफल काम किया जा रहा है। इस कवायद में सबसे आगे देश की पुरानी पार्टी कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी हैं। जब से मोदी प्रधानमंत्री बने हैं तब से ही कांग्रेस सत्ता विहीन होकर अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रही है। इस लड़ाई में उसका प्रमुख और एकमात्र शत्रु मोदी हैं। 2014 से आज तक बीते साढ़े 6 सालों में देश के प्रधानमंत्री ने देश को दुनिया में सम्मान दिलाने का गंभीर प्रयत्न किया है। यूपीए काल में जहां दुनिया के प्रभावशाली देशों के लिए भारत केवल एक देश मात्र था वह आज उनके लिए एक महत्वपूर्ण देश बन गया है जिसकी प्राय: हर बात पर गौर किया जाता है और इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी ने जो भागीरथी प्रयत्न किए हैं वह किसी से छिपे नहीं हैं। जिसका फायदा देश को पाक प्रायोजित आतंकवाद से लड़ने या वर्तमान में चीन-भारत विवाद में भारत को मिल रहा है। वर्तमान चीन-भारत विवाद में प्रमुख रूप से अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, इजरायल और फ्रांस जैसे कई देश भारत के साथ हैं। फ्रांस भारत का रूस के बाद ऐसा नया साथी है जिसने भारत-चीन विवाद के समय राफेल की पांच विमानों की खेप देकर अपना समर्थन दिया है। यह कोई छोटी बात नहीं है लेकिन यह सब देश के विपक्ष को पच नहीं रहा है और विचित्र बात तो यह है कि विपक्षी दलों के नेता यह नहीं जान रहे  कि उनके प्रयत्न मोदी की छवि बिगाड़ें न बिगाड़ें लेकिन उनकी स्वयं की छवि को गंभीर क्षति पहुंच रही है।
    वस्तुतः प्रधानमंत्री मोदी एक दृढ़ प्रतिज्ञ व्यक्ति के रूप में पहचाने जा रहे हैं। विगत सालों में उन्होंने जो निर्णय लिए वे देश की जनता की आकांक्षा हैं और जिन की पूर्ति की संभावना किसी और नेतृत्व में संभव नहीं थी। अपने शासन के पहले पांच साल तक मोदी ने उन योजनाओं पर काम किया जो देश की जनता को सीधे सीधे प्रभावित करती थीं। जैसे-जैसे मोदी जन आकांक्षाओं की पूर्ति करते गए विपक्ष के मन में मोदी के विरुद्ध आक्रोश और नफरत बढती गई और जनता उनकी मुरीद होती गई। 2014 के चुनाव से पहले ही मोदी विपक्ष के निशाने पर इतने अधिक थे कि किसी अन्य चुनाव में कोई अन्य नेता इतना निशाने पर कभी नहीं रहा। मोदी की बोटी बोटी काट देने वाला सहारनपुर के इमरान मसूद का बयान चुनाव प्रचार के दौरान इस बात की तस्दीक करता है कि मोदी के विरुद्ध कितना जहर घुला हुआ था। लेकिन तब देश की जनता एक परिवर्तन चाहती थी जिसमें मोदी फिट बैठते थे। यूपीए के काल में भारत की जनता पाक प्रायोजित आतंकवाद से पीड़ित थी क्यों कि वह देशभर में बम धमाकों से आजिज आ चुकी थी। ऐसे में वह ऐसे नेतृत्व की चाह रखती थी जो पाकिस्तान को दृढ़ता से जवाब दे सके, जो जम्मू कश्मीर पर भारत की पकड़ को और ज्यादा मजबूत कर सके। कश्मीरी अलगाववादियों की बेजा हरकतों को ठिकाने लगा सके। और मोदी ने इन आकांक्षाओं के अनुरूप काम करने की प्रतिबद्धता अपने चुनाव प्रचार में की थी। देश में भ्रष्टाचार के शिष्टाचार को रोकने के लिए मोदी ने विशेष प्रयत्न किए। नोटबंदी कर रसूखदार लोगों के पास पड़ी करोड़ों की नगदी को एक झटके में रद्दी बनाने का काम किया। बेनामी संपत्ति का कानून बनाकर संपत्ति संबंधी गोरखधंधे को बंद करना भी एक ऐसा ही महत्वपूर्ण काम हुआ। बैंकों से कर्ज लेकर भागने वाले धन कुबेरों को कानूनी गिरफ्त में लेने में कोई कोताही नहीं बरतना भी मोदी के पक्ष में गया। यही नहीं देश के गरीबों को अनेक योजनाओं के माध्यम से उनके जीवन को सरल और सुखद बनाने के लिए जनकल्याण योजनाएं मोदी सरकार की प्रथम कार्यकाल की उपलब्धियां हैं। प्राय: लेखों में उनकी पुनरावृत्ति होती है लेकिन यह भी सच्चाई है कि जनधन खाते, उज्जवला योजना, आवास योजना और शौचालय निर्माण जैसी अनेक योजनाएं हैं जिनके उल्लेख के बिना मोदी के जन कल्याणकारी नजरिया को स्पष्ट नहीं किया जा सकता। 2014 से 2019 तक के 5 वर्ष के कार्यकाल में मोदी ने जो काम किए उन कामों ने उन्हें विशिष्ट और सभी का चहेता बना दिया लेकिन विपक्ष को इन कामों के प्रभावों का मूल्यांकन करना ही नहीं आया। 2019 में जब विपक्ष आम चुनावों में उतरा तो उसे लगा कि मोदी अच्छे दिनों का भ्रमजाल फैलाकर 2014 में चुनाव जीते थे अब दोबारा उनका आना मुश्किल है। और यही सोचकर उन्होंने न केवल मोदी का कमजोर आकलन किया बल्कि उन कामों को इतना हल्का आँका  जैसे कि मोदी के इन जनकल्याणकारी कामों का जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा होगा और जनता उन्हें 2019 में उखाड़ फेंकेगी। मोदी विरोधी प्रसिद्ध पत्रकार शेखर गुप्ता ने 2019 में अपने एक लेख में यह स्वीकार किया था कि उन्होंने मोदी के गरीबों और दलितों के लिए किए गए कामों का सही ढंग से मूल्यांकन नहीं किया। वस्तुतः इन कामों ने मोदी को गरीबों का मसीहा बना दिया और 2019 में विपक्ष तब हतप्रभ हो गया जब अकेले दम पर भाजपा ने मोदी के कंधों पर सवार होकर 303 सीटें जीतने का असंभव काम कर दिखाया। ऐसे जनादेश की तो देश के किसी भी राजनेता और राजनीतिक भविष्यवक्ता को भी उम्मीद नहीं थी। जो विपक्ष 2014 के बाद से जैसे-तैसे 5 साल बिता कर 2019  में सरकार बनने की अपेक्षा कर रहा था वह धड़ाम से घुटनों के बल गिर पड़ा। लेकिन 2019 के बाद मोदी के खिलाफ नफरत का जहर इतना घुल गया कि विपक्ष ने मई के महीने से ही मोदी पर जहर बुझे तीर बरसाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। संसदीय लोकतंत्र का इतिहास बताता है कि प्रायः आम चुनाव हारने के बाद विपक्षी दल नई सरकार के 1 साल के कार्यकाल में प्राय: सरकार के कामकाजों की प्रतीक्षा करते हैं और फिर सरकार को घेरने की रणनीति बनाते हैं लेकिन 2019 के मई महीने से प्रारंभ हुई मोदी सरकार की आलोचना उसके शपथ ग्रहण के साथ ही शुरू हो गई। किंतु मोदी सरकार ने बिना किसी की परवाह किए अपने मिशन के अनुरूप काम करना जारी रखा।
      2014 में प्रचार मंचों से मोदी और भाजपा ने जम्मू कश्मीर से धारा 370 और 35 हटाने की जो बात कही उसे उसने 5 अगस्त 2019 को पूरा कर दिया। यही नहीं मोदी सरकार ने तीन तलाक को खत्म करने का जो वादा किया था वह भी पूरा कर दिया। और तो और सैकड़ों सालों से चल रहे राम मंदिर के मुद्दे के विवाद का पटाक्षेप  भी सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद होना मोदी सरकार की उपलब्धि ही कही जाएगी। ये ऐसे निर्णय हैं जो भारतीय इतिहास में कभी भुलाए नहीं जाएंगे। यही नहीं इस साल के प्रारंभ में नागरिकता संशोधन कानून लागू करने का इतिहास लिखने वाले मोदी 2014 की तुलना में 2019 में और ज्यादा विपक्ष के सीधे निशाने पर आ गए। 2019 के चुनावों में कांग्रेस ने मोदी विरोध में ‘चौकीदार चोर है’ को प्रचार का अमोघ अस्त्र बनाया किन्तु सुप्रीम कोर्ट ने उसकी हवा निकाल दी। जनता ने भी भरपूर समर्थन देकर मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री पद पर आसीन किया। और अब 29 जुलाई को राफेल की पांच विमानों की पहली खेप ने मोदी विरोधियों के हाथों के तोते उड़ा दिए। हालांकि विपक्ष को आलोचना के लिए फिर से राफेल मिल गया है लेकिन उसकी आलोचना के आधार इतने थोथे हैं कि वह राफेल खरीद, सेना में उनकी उपयोगिता और दुश्मन देशों को जवाब देने के लिए आधुनिक युद्धक विमान राफेल पर मोदी सरकार की सोच के आगे बौने ही कहे जाएंगे। निसंदेह देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने मोदी को 2019 से ही अपने निशाने पर ले रखा है और अब ट्विटर और वीडियो वार्ता के माध्यम से वह मोदी की छवि धूमिल करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने दे रहे किंतु यह पब्लिक है सब जानती है। वस्तुतः राहुल गांधी को यह समझना होगा कि नकारात्मक चिंतन के सकारात्मक परिणाम कभी नहीं मिलते। उन्हें यह भी समझना होगा की आलोचना के लिए तथ्यों  पर पकड़ होना जरूरी है। वस्तुतः जो लोग राजनीति में रुचि रखते हैं वह अच्छी तरह जानते हैं कि विपक्ष ने मोदी को जितना नीचा दिखाने की कोशिश की उसे उतना ही ज्यादा नुकसान हुआ। मोदी की यह विशेषता है कि वह बेवक्त कभी बात नहीं करते और कांग्रेस की यह कमजोरी है कि वह वक्त का महत्व नहीं समझते हुए कब क्या कहना है नहीं जानती।


बुधवार, 15 जुलाई 2020

उम्र दराज नेताओं पर इसलिए भरोसा करती है कांग्रेस


                    उम्र दराज नेताओं पर इसलिए भरोसा करती है कांग्रेस
                           
             डॉ.रिकृष्ण बड़ोदिया
        सोमवार को दोपहर 1:30 बजते बजते यह खबर आना की अशोक गहलोत के समर्थन में 109 विधायक हैं कांग्रे के लिए सुकून की बात थी किंतु मंगलवार दोपहर को कांग्रेस हाईकमान ने राजस्थान के युवा, ऊर्जावान और अच्छे जनाधार वाले नेता सचिन पायलट को ना केवल उप मुख्यमंत्री पद से हटा दिया बल्कि उन्हें राज्य के अध्यक्ष पद से भी मुक्त करते हुए उनके दो समर्थक मंत्रियों को भी पद मुक्त कर दिया। यह समाचार राजस्थान में कांग्रेस सरकार के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह अंकित कर गया। वस्तुतः कांग्रेस ने अपनी सरकार पर आए संकट को फौरी तौर पर हल तो कर लिया किंतु यह किसी से छिपा नहीं है कि सचिन पायलट ने कांग्रेस के सामने एक बड़ी समस्या खड़ी कर दी है। 200 सदस्यों वाली विधानसभा में आज की स्थिति में कांग्रे भले ही यह बता रही है कि उसके साथ 109 सदस्य हैं और सरकार पर कोई संकट नहीं है किंतु सचिन पायलट ने अशोक गहलोत को बिना किसी आधार के चुनौती दी होगी यह मानना कतई उचित नहीं है। सचिन पायलट को इतना अंदाजा और भरोसा तो होगा ही कि यदि वे गहलोत को चुनौती दे रहे हैं तो उसके पीछे पर्याप्त समर्थन उनके पास है। इस आधार पर कहा जाए तो गहलोत सरकार आज की स्थिति में असमंजस की सरकार ही है कि पता नहीं कल क्या होगा।
      कांग्रे वैसे तो अपने जनाधार में लगातार पतन से जूझ रही है किंतु जहां उसकी सरकारें हैं वहां ऐसी परिस्थितियों ने उसे और अधिक परेशान करके रख दिया है। इसके लिए जिम्मेदार यदि कोई है तो वह कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व ही है। कौन नहीं जानता कि सचिन पायलट ने 2018 में कांग्रेस को दोबारा सत्ता में लाने के लिए जी तोड़ मेहनत की थी। उन्होंने कांग्रेस के उलझे हुए समीकरणों को हल करने में जो ऊर्जा लगाई थी उसी का परिणाम था कि राजस्थान के गुर्जर और मीणा के बीच की दूरी कम हुई थी जिसके परिणाम स्वरूप कांग्रेस को 20 से 25 सीटों का फायदा हुआ था। राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष होते हुए उन्होंने कांग्रेस को जो सफलता दिलाई उसी का परिणाम था कि कांग्रेस सत्ता में वापसी कर सकी। यही नहीं चुनाव प्रचार के दौरान सचिन पायलट राजस्थान में प्रमुख प्रचारक की भूमिका में थे जिसका सीधा अर्थ था कि यदि कांग्रेस सत्ता में आती है तो सीएम सचिन ही होंगे जिसका खासा असर युवाओं पर हुआ था। यही कारण था कि सचिन को अन्य नेताओं की तुलना में अधिक पसंद किया गया। किंतु जब कांग्रेस सरकार बनाने की स्थिति में पहुंची तब उसने सचिन पायलट को दरकिनार कर दिया और सचिन को मन मसोसकर राजस्थान का उप मुख्यमंत्री पद स्वीकार करना पड़ा। यहीं से सचिन की मन:स्थिति हाईकमान के प्रति सकारात्मक नहीं रही। सचिन को मुख्यमंत्री न बनाए जाने से यह संदेश पूरी तरह से स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस आलाकमान युवा नेतृत्व को महत्व नहीं देती। वस्तुतः इसके पीछे यही कारण है कि आलाकमान यह कतई नहीं चाहता कि उसकी पार्टी में कोई युवा सशक्त होकर उसे चुनौती देने की स्थिति में आ जाए। वस्तुत कांग्रेस उम्र दराज लोगों पर इसलिए भरोसा करती है, क्योंकि वह जानती है कि उम्र दराज नेता कांग्रेस नेतृत्व को चुनौती देने की कूबत नहीं रखते। यही कारण था कि कांग्रेस ने मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य के स्थान पर कमलनाथ और राजस्थान में सचिन पायलट की जगह अशोक गहलोत को राज्य की बागडोर सौंपी।
    सचिन पायलट ने सरकार के गठन के समय विषघूंट पीकर भी अपनी निष्ठा कांग्रेस में व्यक्त की किंतु अशोक गहलोत निरंतर उनके पर कतरने का कोई मौका नहीं छोड़ते रहे। सरकार गठन के बाद से ही गहलोत सचिन पायलट को दरकिनार करने की अपनी कारगुजारी में लिप्त रहे। बताया जाता है कि गहलोत ने सचिन को कभी महत्त्व नहीं दिया। उप मुख्यमंत्री होते हुए भी उन्होंने कभी उनके कामों में सहयोग नहीं किया। सचिन जो भी करना चाहते उस में अवरोध पैदा करना उनकी आदत बन गई। कहा तो यहां तक जाता है कि सचिन छोटे-मोटे ट्रांसफर करने में भी अपने को अक्षम महसूस करते थे। सचिन के अपमान की इंतहा तो तब हो गई जब पार्टी विधायकों की खरीद-फरोख्त से संबंधित मामले में पुलिस ने उन्हें जांच में शामिल होने का समन थमा दिया। और यह बिना गहलोत की सहमति के संभव नहीं था क्योंकि गृह मंत्रालय मुख्यमंत्री के पास ही है। बताया तो यह भी जाता है कि जिस दरवाजे से मुख्यमंत्री और स्पीकर विधानसभा में प्रवेश करते हैं उस दरवाजे से सचिन पायलट को प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी। कुल मिलाकर गहलोत ऐसा कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देते थे जिससे सचिन का अपमान होता। वस्तुतः जो स्थिति मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य की कर दी गई थी वैसी ही स्थिति राजस्थान में सचिन पायलट की थी। मध्यप्रदेश में कमलनाथ ने ज्योतिरादित्य को ना तो प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने दिया और ना ही उन्हें राज्यसभा में भेजने के बारे में सकारात्मक रुख दिखाया। अपमान का यह आलम की कमलनाथ ज्योतिरादित्य को सार्वजनिक तौर पर चुनौती देते कि जो बने वह कर लो”, नतीजा सबके सामने है कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार का पतन हो गया। वहीं राजस्थान में अशोक गहलोत सचिन पायलट की पेक्षा में इतने मशगूल हो गए कि सचिन को महत्वहीन बनाने की जुगत में जुट गए जिसका परिणाम आज यह है कि आज कांग्रेस एक सशक्त युवा, ऊर्जावान और जनाधार वाले नेता से वंचित हो गई है। कहा जा सकता है कि कांग्रेस आलाकमान भी नहीं चाहता कि उनके रहते हुए उनके दल में कोई युवा नेता शक्तिशाली और प्रभावी हो क्योंकि उन्हें डर लगता है कि किसी दिन यही नेता उन्हें खुलकर खुली चुनौती देने आगे आ सकता है। कांग्रेस रूपी राजनीतिक दल आज पारिवारिक नेतृत्व में सिमट कर रह गया है। यही कारण है कि युवा और स्वाभिमानी वर्ग के नेता स्वयं को कांग्रेस में उपेक्षित और अपमानित महसूस कर रहे हैं जिसकी वजह से एक-एक कर नेतागण अपना अलग रास्ता खोजने की राह पर आगे बढ़ रहे हैं। असम के हेमंत बिश्वाशर्मा, मध्यप्रदेश के ज्योतिरादित्य सिंधिया, गुजरात के अल्पेश ठाकोर और अब सचिन पायलट सभी की कहानी अपमान और उपेक्षा की कहानी है।
    वस्तुतः कांग्रेस की दिक्कत केवल राजस्थान में नहीं है बल्कि पूरे देश में उसकी स्थिति कमजोर से कमजोर होती जा रही है। कर्नाटक और मध्य प्रदेश में सत्ता गंवाने का दोष राज्य नेतृत्व की क्षमता से अधिक शीर्ष नेतृत्व की अक्षमता है। लेकिन इसे कोई स्वीकार नहीं करता। आज पार्टी के दिग्गज भी चिंतित होते देखे जा रहे हैं। कपिल सिब्बल और शशि थरूर ने एक एक कर राज्यों में सत्ता गंवाने पर अपनी चिंता सार्वजनिक तौर पर जाहिर की है। सच तो यह है कि आज कांग्रेस नेतृत्व डरा हुआ है और डर इतना व्यापक है की अपने ही निष्ठावान नेताओं की सलाहों से भी डरता है, अगर ऐसा नहीं होता तो शीर्ष नेतृत्व जून में संजय झा को प्रवक्ता पद से निष्कासित नहीं करता। कौन नहीं जानता कि संजय झा बड़ी संजीदगी और मजबूती से कांग्रेस का पक्ष रखने के लिए जाने जाते हैं। यही नहीं संजय झा को पार्टी से निलंबित इसलिए कर दिया गया क्योंकि उन्होंने ट्वीट कर कांग्रेस नेतृत्व को सुझाव दिया था कि सचिन पायलट को राजस्थान का सीएम बना देना चाहिए और अशोक गहलोत को संगठन की बड़ी जिम्मेदारी सौंपना चाहिए। स्पष्ट है कि कांग्रेस का शीर्ष पारिवारिक नेतृत्व किसी भी ऐसी सलाह को नहीं मानता जिससे उसका महत्व कम हो जाए। हालांकि राजस्थान में आज की स्थिति में संकट टल  गया है किंतु यह कहना कठिन है कि यह संकट पूरी तरह से ल गया है और  राजस्थान में कांग्रे आने वाले समय में निर्विघ्न सरकार चला पाएगी। यदि आने वाले समय में कर्नाटक और मध्य प्रदेश की तरह राजस्थान में भी कांग्रेस सत्ता से बेदखल होती है तो यह पूरी तरह शीर्ष नेतृत्व की अक्षमता ही मानी जाएगी

रविवार, 5 जुलाई 2020

प्रधानमंत्री ने चीन को विस्तारवादी कहकर करारा तमाचा जड़ा


             प्रधानमंत्री ने चीन को विस्तारवादी कहकर करारा तमाचा जड़ा

                                         डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया
           प्रधानमंत्री मोदी का अचानक लेह दौरा ना केवल देश बल्कि दुनिया भर के लिए आश्चर्य भरे एहसास से कम नहीं रहा। जब भारत और चीन के बीच तनाव है और सीमा पर दोनों देशों की सेनाओं की तैनाती है तब ऐसे में देश के प्रधानमंत्री मोदी का अचानक लेह दौरा न केवल सेना के अधिकारियों और जवानों के लिए  प्रोत्साहन और हौसला अफजाई का सबब बना बल्कि देश वासियों के लिए यह आश्वासन भी है कि देश उनके नेतृत्व में सुरक्षित है। मोदी का यह दौरा स्पष्ट करता है कि ना तो वे डरे हैं, न वे छुपे हैं और ना वे सरेंडर हैं, बल्कि वे जो भी करते हैं हर काम सही समय पर करते हैं। इस दौरे ने न केवल चीन की परेशानियां बढ़ा दी हैं बल्कि उसे यह स्पष्ट संदेश भी मिल गया है कि भारत किसी को छेड़ता नहीं और यदि कोई छेड़ता है तो उसे छोड़ता भी नहीं। प्रधानमंत्री मोदी ने इस दौरे में सैनिकों को संबोधित करते हुए चीन को विस्तारवादी देश बताया और चेतावनी दी कि  ‘विस्तारवाद का युग समाप्त हो गया है, अब विकासवाद का युग है। जब किसी मुल्क पर विस्तारवाद की सनक सवार हो जाती है तो वह विश्व शांति के लिए किसी खतरे से कम नहीं होता और इतिहास गवाह है ऐसी ताकतें या तो मिट गईं या रास्ता बदलने के लिए मजबूर हुईं।
        वस्तुतः प्रधानमंत्री के चीन को विस्तार वादी कहने के कई पहलू हैं। आज दुनिया भर के सभी देश जानते हैं कि चीन ने विगत 70 सालों में अपने वास्तविक क्षेत्रफल से दोगुना क्षेत्र आकार कर लिया है। जमीन हथियाने का यह काम उसने धीरे-धीरे किया। अगर हम उसकी जमीन हड़प नीति पर विचार करें तो पाते हैं कि उसने 1945 में मंगोलिया पर हमला कर कोयला भंडार से भरपूर लगभग 12 लाख  वर्ग किलोमीटर जमीन हथिया ली। यही नहीं 1997 में उसने हांगकांग पर आधिपत्य जमा लिया। 1999 में पुर्तगाल की जमीन पर कब्जा किया। यही नहीं आज भी रूस और चीन के बीच 52 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर विवाद चल रहा है, यह अलग बात है कि चीन और रूस के संबंध वर्तमान में सामान्य हैं। चीन जहां एक ओर भारत से  गलवान घाटी पर सीमा विवाद कर रहा है वहीं रूस के व्लादिवोस्तोक शहर पर अपना दावा जता रहा है। चीन के सरकारी समाचार चैनल सीजीटीएन  के संपादक  शेन सिवई  ने दावा किया है कि रूस का व्लादिवोस्तोक शहर 1860 से पहले  चीन का हिस्सा था। 1950 में चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया और इसका विस्तार भारत की सीमा तक किया। यही नहीं चीन के अत्याचारों के कारण तिब्बत के नागरिकों ने दूसरे देशों में शरण ली।  तिब्बत पर कब्जे के कारण चीन भारत की सीमा के नजदीक पहुंच गया। यही नहीं चीन ने उइगर मुसलमानों की बड़ी आबादी वाले पूर्वी तुर्किस्तान की 16 लाख वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर लिया।  1962 में चीन ने भारत के अक्साई चीन को हड़प लिया। 1967 में चीन ने भारत की जमीन हडपने के लिए फिर कोशिश की किन्तु सेना के पराक्रम से उसे हार का मुंह देखना पड़ा। आज की स्थिति में चीन ने भारत की लगभग 43 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन हड़पी हुई है और उसकी यह भूख अभी भी मिटी नहीं है। यही नहीं चीन ने पाकिस्तान को कर्ज दे देकर उसे इतना कंगाल कर दिया कि वह चीन से प्राप्त कर्ज को कभी वापस नहीं कर सकता। इसी के चलते चीन ने ‘चीन पाकिस्तान इकोनामिक कॉरिडोर’(CPEC) के नाम पर भारत की सीमा से सटे पाकिस्तान की जमीन हथिया ली। इस कॉरिडोर के अंतर्गत पाकिस्तान ने चीन से 62 अरब डॉलर का कर्ज लिया है।
     पिछले दो महीनों से भारत और चीन के बीच गलवान घाटी को लेकर विवाद इतना गहरा गया है कि दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने हैं। चीन की नीति बहुदा  यह होती है कि वह धोखे से पड़ोसी देश की सीमा में घुसता है। यदि वह 50 किलोमीटर आगे बढ़ता है तो विवाद के बाद समझौता कर 20 से 25 किलोमीटर पीछे हट जाता है और इस तरह 25-30 किलोमीटर जमीन हथिया कर पड़ोसी देश को हानि पहुंचाता है। वस्तुतः चीन एक शातिर  देश है। चीन की सीमा 14 देशों के समीप है किंतु वह 23 देशों की जमीन या समुद्री सीमाओं पर दावा जताता है। आज की स्थिति में वह अब तक दूसरे देशों की 41लाख  वर्ग किलोमीटर भूमि पर कब्जा कर चुका है। ऐसी स्थिति में जब चीन के अधिकांश सीमावर्ती देश चीन की जमीन हड़प नीति से पीड़ित हैं तब उसे विस्तारवादी देश ना कहा जाए तो क्या कहा जाए।        प्रधानमंत्री मोदी ने लेह में किसी देश का नाम नहीं लिया लेकिन उनके बयान से चीन  बिलबिला उठा। चीन ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि ‘हम विस्तारवादी सोच नहीं रखते, कई देशों के साथ हमने शांतिपूर्ण तरीके से सीमा विवाद सुलझाए हैं’। यही नहीं भारत में स्थित चीनी दूतावास ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी का बयान ‘आधारहीन और अतिरंजित’ है। लेकिन सच्चाई तो यही है कि प्रधानमंत्री मोदी ने चीन को विस्तारवादी कहकर न केवल करारा तमाचा जड़ा बल्कि ड्रैगन की पूरी हकीकत दुनिया के सामने खोल कर रख दी। सच्चाई तो यह है कि चीन की इस विस्तारवादी  नीति से दुनिया के कई देश परेशान हैं।  
     प्रधानमंत्री मोदी ने भगवान कृष्ण का उल्लेख करते हुए चीन को सचेत किया कि ‘हम उन भगवान कृष्ण के उपासक हैं जो अपने हाथ में मुरली भी रखते हैं और जरूरत पड़ने पर सुदर्शन चक्र भी रखते हैं, और उसका प्रयोग भी करते हैं’। स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री मोदी ने चीन को कड़े शब्दों में शांति सन्देश और युद्ध की चेतावनी दे दी कि हम शांति तो चाहते हैं किंतु वक्त आने पर युद्ध से भी पीछे नहीं हटेंगे। इस पर चीन ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि ‘हमें (दोनों पक्षों को) कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिससे विवाद और बढे’। वस्तुतः चीन खुली आंखों और कानों से देख और सुन रहा है कि भारत चाहता है कि बातों से सीमा विवाद का हल निकल आए किंतु यदि ऐसा नहीं होता है तो भारत ने सीमा पर जल, थल और नभ में सामरिक मोर्चाबंदी भी शुरू कर दी है। चीन यह भी जानता है कि प्रधानमंत्री जो कहते हैं वह करते हैं, और यह भी जानता है कि विश्व की कई शक्तियां युद्ध काल में भारत के साथ खड़ी दिखाई देंगी। अमेरिका ने भी चीन के विरुद्ध अपने युद्धपोत दक्षिण चीन सागर में तैनात कर दिए हैं जो चीन की दादागिरी को किसी चुनौती से कम नहीं है तो रूस से भारत ने अभी-अभी 33 फाइटर जेट विमानों का सौदा किया है। वहीं फ्रांस से राफेल की पूर्ति इस महीने के अंतिम सप्ताह में होने जा रही है। स्पष्ट है कि भारत चीन के सामने एक योद्धा की तरह खड़ा है जिस की सेना ने 67 में चीन पर जीत , 71 की जंग में पाकिस्तान पर विजय हासिल की और 99 में कारगिल में पाकिस्तान को फिर से धूल चटाई। वस्तुतः प्रधानमंत्री ने अपने एक्शन से यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत अब 1962 का भारत नहीं। यह ऐसा नया भारत है जिसकी सेना ने सर्जिकल और एयर स्ट्राइक कर दुश्मन देश पाकिस्तान को सबक सिखाया है। आज की स्थिति में चीन भारत से सीमा विवाद के मुद्दे पर लगभग अकेला पड़ गया है। अब उसे निर्णय करना है कि वह युद्ध में जाए या फिर कुटनीतिक शांतिपूर्ण वार्ताओं से समस्या का समाधान निकालेI
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