मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

  रद्दी हुए झंडे को भूल तिरंगे का सम्मान करना सीख लो मोहतरमा

 

                रद्दी हुए झंडे को भूल तिरंगे का सम्मान करना सीख लो मोहतरमा

                                                  


डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया 

      भाजपा ने 2015 में मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीडीपी से साझा न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाई थी, तब ना केवल राजनीतिक पंडितों को आश्चर्य हुआ था बल्कि देश की विपक्षी पार्टियों ने भी भाजपा की आलोचना की थी। उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि सत्ता के लिए भाजपा अपने मौलिक लक्ष्यों से भटक चुकी है। जब फरवरी 2015 में जम्मू कश्मीर में मुफ्ती मोहम्मद सईद को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई थी तब मुफ्ती साहब ने अपने पहले बयान में कहा कि ‘वे राज्य में विधानसभा चुनाव की सफलता के लिए पाकिस्तान, हुर्रियत और आतंकवादियों के शुक्रगुजार हैं जिनकी वजह से चुनाव सफलतापूर्वक हो पाए', उन्होंने कहा 'अगर आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते या फिर पाकिस्तान सीमा पार से गोलीबारी करता तो चुनाव के लिए बेहतर माहौल राज्य में नहीं बन पाता।' यह ऐसे बयान थे जिनसे मुफ्ती मोहम्मद सईद की पाकिस्तान परस्ती और आतंकवादियों के प्रति हमदर्दी स्पष्ट होती है। सबसे बड़ा अचरज तो इसी बात का था कि भाजपा जैसी दक्षिणपंथी, राष्ट्रवादी और आतंकवाद की कट्टर विरोधी, हुर्रियत  और पाकिस्तान के विरुद्ध कठोर रुख रखने वाली पार्टी ने कैसे मुफ्ती के साथ सरकार बनाना स्वीकार किया। निश्चित ही इसके पीछे जहां एक ओर जम्मू कश्मीर में जम्मू के प्रतिनिधित्व को महत्व दिलाना था वहीं  एक ऐसा प्रयोग था जो सफल होता तो ठीक नहीं होता तो भाजपा पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ना था। भाजपा नहीं चाहती थी कि नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी मिलकर सरकार में कट्टरवादी आतंकवाद के दो समर्थक एक साथ जम्मू-कश्मीर की जनता को हानि पहुंचाते। वहीं आज लगता है कि भाजपा सरकार में रहकर भविष्य में लागू की जाने वाली उसकी नीतियों के संदर्भ में अनुसंधान कर रही थी जो हमें बाद में समझ आता है।         कौन नहीं जानता कि जम्मू-कश्मीर के दो सियासी परिवार अब्दुल्ला और मुफ्ती के बिना कश्मीर में सियासत की कल्पना नहीं की जा सकती थी और यही सच भी था। यह दोनों दल और इनके नेता सत्ता में रहते हुए एक दूसरे के बहुत बड़े आलोचक हैं। किंतु हुर्रियत, आतंकवाद और पाकिस्तान के अपने स्तर पर कट्टर समर्थक हैं। लेकिन जब एक दल सत्ता में होता है तो दूसरा दल सत्ताधारी दल की आलोचना से कभी पीछे नहीं हटता। यही कारण था कि जब मुफ्ती मोहम्मद सईद ने पाकिस्तान और हुर्रियत  और आतंकवादियों की वजह से जम्मू कश्मीर में चुनावों की सफलता में कसीदे पढ़े तो उमर अब्दुल्ला ने आलोचना करते हुए कहा कि ‘कश्मीर की कौम के लिए पाकिस्तान और आतंकी कभी अच्छे नहीं हो सकते और जो लोग ऐसा सोचते हैं उनकी सोच भी सोच का विषय है।’ बयान की दृष्टि से लगेगा कि नेशनल कांफ्रेंस पाकिस्तान और आतंकवाद के खिलाफ दिखाई दे रही है लेकिन यह दोनों दल सुविधा की राजनीति करने वाले जम्मू कश्मीर के शातिर खिलाड़ी हैं।

    वस्तुतः भाजपा ने फरवरी 2015 से जम्मू कश्मीर में मुफ्ती मोहम्मद सईद के नेतृत्व में सरकार चलाई। दुर्भाग्यवश 7 जनवरी 2016 को मुफ्ती मोहम्मद सईद का निधन हो गया और जम्मू कश्मीर में दोबारा सरकार बनाने की जरूरत आ पड़ी। तब  भी समीकरण वही थे। सूत्र पीडीपी और बीजेपी के पास ही थे। बहुत लंबे विचार विमर्श के बाद 4 अप्रैल 2016 को महबूबा मुफ्ती ने 13वे  मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। इस सरकार के गठन में भाजपा के जम्मू कश्मीर प्रभारी राम माधव की बड़ी भूमिका थी। इस गठबंधन से सबसे ज्यादा परेशान कांग्रेस थी जिसने इसे ‘अपवित्र गठबंधन’ निरूपित किया था। वस्तुतः राज्य की जो स्थिति मुफ्ती मोहम्मद सईद के समय थी वही स्थिति मेहबूबा के समय रही। वही पाकिस्तान का समर्थन, आईएसआईएस के झंडे, पाकिस्तान के झंडे, सेना पर पत्थरबाजी और आतंकवादियों का समर्थन ऐसी स्थितियां थीं जिनसे भाजपा का नेतृत्व पीड़ा तो महसूस करता था लेकिन गठबंधन धर्म के कारण बोल नहीं पाता था। महबूबा के हठधर्मी नेतृत्व ने भाजपा के नेताओं को असहज कर दिया था लेकिन भाजपा किसी बड़े उद्देश्य के तहत उन की नाफरमानियों को बर्दाश्त कर रही थी। महबूबा भी अब्दुल्ला परिवार की तरह पाकिस्तान से प्रेम और भारत से नफरत करने वाली राजनेता हैं। इनका छद्म भारत प्रेम सही मायनों में दिखावा है क्योंकि समय-समय पर दिए गए इनके बयान इस बात की पुष्टि करते हैं कि दोनों परिवार खुदगर्ज और अब्बल दर्जे के देशद्रोही हैं। कश्मीर में वर्तमान सरकार की पाकिस्तान के संदर्भ में जीरो टॉलरेंस नीति से यह खासे परेशान रहते रहे। ये हमेशा पाकिस्तान से वार्ता की वकालत करते रहे। जब केंद्र की मोदी सरकार ने अचानक महबूबा मुफ्ती की सरकार से समर्थन वापस ले लिया तो यह सकते में आ गईं। तब इनके दोगले चेहरे उजागर होने शुरू हो गए। अप्रैल 2019 में उन्होंने भारत को धमकी देना शुरू कर दिया। एक बयान में महबूबा ने कहा ‘भारत ने परमाणु बम दिवाली के लिए नहीं रखा है उसी तरह पाकिस्तान ने भी इसे ईद के लिए नहीं रखा है।‘

     स्पष्ट है कि जिस तरह की बकवास और परमाणु बम की धमकी पाकिस्तान के हलकट मंत्री भारत को देते रहते हैं उसी तरह महबूबा मुफ्ती ने भी बयान दिया। पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान की तरफदारी करते हुए महबूबा ने कहा ‘इमरान खान नए हैं और उन्हें एक मौका देना चाहिए।‘ स्पष्ट करता है कि इतनी बड़ी आतंकी घटना को भी नजरअंदाज करते हुए भी वे पाकिस्तान से प्रेम दिखा रही थीं। जब भाजपा ने मेहबूबा से समर्थन वापस लिया और जम्मू कश्मीर में राज्यपाल नियुक्त हुए तब अब्दुल्ला परिवार और महबूबा मुफ्ती को लगभग आभास होने लगा था कि भाजपा नीत एनडीए कश्मीर में कुछ बड़ा करने जा रही है। यही कारण था कि दोनों दलों ने केंद्र सरकार का विरोध करना शुरू कर दिया। धारा 370 और 35ए को हटाने के संदर्भ में महबूबा ने धमकी देते हुए कहा 'पहले से ही जम्मू-कश्मीर बारूद के ढेर पर बैठा है यदि ऐसा होता है तो न केवल कश्मीर बल्कि पूरा देश जल उठेगा इसलिए मैं बीजेपी से अपील करती हूं कि वह आग से खेलना बंद कर दें।' स्पष्ट है कि महबूबा ने अपनी तरफ से सरकार को डराने की पूरी कोशिश की। यही नहीं उमर अब्दुल्ला ने कहा 'धारा 370 हटाई तो कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं रहेगा इसे हटाने का काम केवल संविधान सभा कर सकती है जिसने इसे विशेष रियासत बनाया'। अलगाववादी जेकेएलएफ के चीफ यासीन मलिक ने कहा 'यदि धारा 370 हटाई तो जम्मू कश्मीर में आग लग जाएगी कश्मीर जल उठेगा'। वस्तुतः जितने भी नेता इसका विरोध करते थे वह सब अंदर से डरे हुए थे क्योंकि वे जानते थे कि धारा 370 हटाना भाजपा का कोर इशु रहा है और जो संकल्प वह लेती है उसे जरूर पूरा करती है। आखिर में 5 अगस्त 2019 को वह शुभ दिन आया जब संसद ने धारा 370 और 35ए से जम्मू कश्मीर को मुक्त करा दिया और जम्मू कश्मीर के बड़े नेताओं और अलगाववादियों को एहतियात के तौर पर शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए नजरबंद या गिरफ्तार कर लिया। यही नहीं जम्मू कश्मीर की इंटरनेट सेवाएं स्कूल और संस्थाएं एहतियातन बंद कर दिए गए।

       किसी गंभीर स्थिति को सामान्य होने में वक्त लगता है। जम्मू कश्मीर में सेवाएं बहाल की गईं तब तक लगभग 1 साल पूरा हो गया था। धीरे-धीरे नजरबंद नेताओं को रिलीज किया गया। पहले अब्दुल्ला पिता पुत्र और बाद में 13 महीने बाद महबूबा मुफ्ती को रिहा किया गया। बौखलाए ये नेता भारत विरोध में चिल्ला रहे हैं। अब्दुल्ला जहां एक ओर चीन की मदद से 370 बहाल कराना चाहते हैं तो महबूबा ने कहा ‘ 370 की बहाली तक तिरंगा हाथ में नहीं लूंगी। तिरंगे से हमारा संबंध जम्मू कश्मीर के झंडे की वजह से है, जब तक 370 बहाल नहीं होता, जम्मू कश्मीर को उसका पुराना स्टेटस नहीं मिलता चुनाव नहीं लडूंगी।' केंद्र सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा 'चोर डाकू कितना ही बड़ा और खूंखार हो मगर जब वह डाका डालता है तो उसको वह माल लौटाना पड़ता है। 5 अगस्त को डाका डाला गया वह किसी कानून के तहत नहीं हुआ। इनके हाथ में तो वह ताकत नहीं कि 370 और 35ए छीन सकें। मैं लोगों को यकीन दिलाना चाहती हूं कि छीनी हुई चीज लोगों के पास वापस आ जाएगी।‘ सच्चाई यही है कि इनके भड़कने या गुपकार गुट बना लेने से धारा 370 बहाल होने से रही। जम्मू कश्मीर में इन सब का विरोध करते हुए 26 अक्टूबर को पूरी कश्मीर में देशभक्त लोगों ने प्रदेश में तिरंगा फहरा कर स्पष्ट कर दिया कि जो प्रावधान खत्म किए गए वह बहाल नहीं होंगे। वस्तुतः अब इन दोनों सियासी परिवारों की राजनीति खत्म हो गई है। यह यदि भारत के कश्मीर राज्य में भारत के नागरिक बनकर राजनीति करेंगे तो इनका स्वागत होगा अन्यथा अलगाववादियों की तरह इन्हें भी भारतीय कानून के तहत बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। इन्हें पुरानी तथाकथित जम्मू कश्मीर रियासत के रद्दी झंडे को भूलना होगा और तिरंगे का सम्मान करना होगा। अब कश्मीर में बदलाव दिखाई देने लगा है। पीडीपी के तीन वरिष्ट नेताओं क्रमशः टीएस बाजवा, वेद महाजन और हुसैन अली बाफरा  ने महबूबा के तिरंगे के अपमान वाले बयान पर पार्टी से इस्तीफा देकर बता दिया कि वे देश विरोधी महबूबा के साथ नहीं रह सकते। 

                                   सेवा निवृत प्राध्यापक (समाजशास्त्र),

                                131/2 एम.बी.नगर, रतलाम (मप्र) 457001

 

रविवार, 18 अक्तूबर 2020

आन्दोलन करो या चीन की मदद लो, 370 तो बहाल नहीं होगी 

 

                आन्दोलन करो या चीन की मदद लो, 370 तो बहाल नहीं होगी 

                                           


                                                            डॉ.हरिकृष्ण बड़ोदिया

        लगभग 40 मिनट के फारूक अब्दुल्ला के 'द वायर' के करण थापर को दिए इंटरव्यू ने यह स्पष्ट कर दिया कि सांप को कितना भी दूध पिलाया जाए वह हमेशा जहर ही उगलता है। कश्मीर पर शेखअब्दुल्ला की तीन पीढ़ियों के शासन करने वाला अब्दुल्ला परिवार न केवल  एक देशद्रोही  है बल्कि पूरा परिवार कश्मीर के लोगों का हित चिंतक नहीं बल्कि अपने स्वार्थ के अंधे कुएं में डूबा शातिर परिवार है। यह ऐसा परिवार है जो अपने स्वार्थ के अलावा और कुछ ना तो जानता है और ना ही करता है। यह ऐसा परिवार है कि जब यह सत्ता में होता है तब देशभक्ति की बड़ी-बड़ी बातें करता है, तब कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानता है लेकिन जब यह परिवार सत्ता से बाहर होता है तब यह पाकिस्तान के गुण गाने लगता है। यह ऐसा गिरगिट है जो इतने रंग बदलता है कि गिरगिट भी शरमा जाए। फारूक पिता पुत्र इतने शातिराना हैं कि इनकी बराबरी कोई नहीं कर सकता। दोनों पिता-पुत्र अपने हितों को आगे रखकर बयान देने में माहिर हैं। कहां किस को संतुष्ट करना है, यह अच्छी तरह जानते हैं। यही कारण है कि एक ही मुद्दे पर पिता-पुत्र कभी-कभी अलग बयान देते देखे जा सकते हैं। जब संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी दी गई थी तब फारूक अब्दुल्ला यूपीए सरकार में मंत्री थे और उमर अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री। तब फारूख अब्दुल्ला ने अफजल की फांसी को सही ठहराया था जबकि मुख्यमंत्री उमर ने कहा था अफजल को फांसी नहीं दी जानी चाहिए थी।

         फारूक अब्दुल्ला खुलेआम पाकिस्तान का समर्थन करने वाले देशद्रोही राजनेता हैं। जब जब भी किसी देशभक्त राजनेता ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को भारत का बताने का प्रयास किया तब तब फारूक अब्दुल्ला पाकिस्तान के साथ खड़े नजर आए। 2017 में उन्होंने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर पर बयान  दिया "पाकिस्तान ने चूड़ियां नहीं पहनी हैं, उसके पास भी परमाणु बम है। वह भारत को जम्मू कश्मीर के अपने कब्जे वाले हिस्से पर नियंत्रण नहीं करने देगा। फारुख ने कहा पीओके पाकिस्तान का है। हम कब तक कहते रहेंगे कि पीओके भारत का है। यह पीओके उनके (मोदी के) बाप की जागीर नहीं है। पीओके पाकिस्तान में है और यह जम्मू कश्मीर भारत में है।" अब्दुल्ला ने कहा "70 साल हो गए लेकिन भारत पीओके को हासिल नहीं कर पाया, वह (भारत) यदि दावा करता है तो पीओके हासिल कर लीजिए हम भी देखेंगे। पाकिस्तान इतना कमजोर नहीं है, उसने चूड़ियां नहीं पहनी हैं, उसके पास भी एटम बम है।" फारूक अब्दुल्ला के इस  बयान का अगर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए तो लगेगा कि जिस गति और दमदारी से मोदी सरकार ने पाकिस्तानी आतंकवाद को हर मोर्चे पर सबक सिखाया है उससे कश्मीर के सियासतदां खासतौर से अब्दुल्ला और मुफ्ती  परिवार डरे हुए हैं, उन्हें लगता है कि यदि भारत ने पीओके पर कब्जा कर लिया तो पूरा जम्मू कश्मीर भारत का हो जाएगा और उनकी पहचान समाप्त हो जाएगी। इसलिए खुद डरा हुआ फारूख भारत को पाकिस्तान के परमाणु बम का बार-बार बखान कर डराने का प्रयत्न करते हुए नजर आता है।

      वस्तुत: पाकिस्तानी पिट्ठू अब्दुल्ला परिवार अपने स्वार्थ की खातिर पीओके को भारत का हिस्सा मानने को सपने में भी तैयार नहीं दिखता। अब्दुल्ला कहते हैं “पीओके पाकिस्तान का है, दोनों देश कितने भी लड़ लें यह हकीकत बदलने वाली नहीं है। मैं (फारुख) केवल भारत से नहीं कहता बल्कि पूरी दुनिया से कहता हूं कि जम्मू कश्मीर का जो हिस्सा पाकिस्तान के पास है वह पाकिस्तान का है और जो हिस्सा इस तरफ है वह भारत का है। यह बदलेगा नहीं। भारत कितनी भी लड़ाइयां लड़ लें इसमें बदलाव नहीं होगा”। असल में अब्दुल्ला परिवार को पीओके से ज्यादा खुद की सियासत की चिंता है। लेकिन 5 अगस्त 2019 को फारूक अब्दुल्ला को समझ आ गया होगा कि मोदी सरकार जो कहती है वह करती है और जो नहीं कहती वह जरूर करती है। जब जब भी अनुच्छेद 370 और 35ए हटाने की मोदी सरकार ने प्रतिबद्धता दिखाई तब-तब अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार ने सांप बिच्छू से डराने का प्रयत्न किया। किसी ने कहा कश्मीर जल उठेगा तो किसी ने कहा यह आग से खेलना है और पूरा भारत जल उठेगा। लेकिन ना केवल यह दोनों प्रावधान अब इतिहास का हिस्सा हो गए बल्कि एक नए जम्मू कश्मीर का उदय हुआ जिसमें लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश बन गया।

    अगस्त 19 से नजरबंद अब्दुल्ला को 13 मार्च 20 को, उमर अब्दुल्ला को 24 मार्च को और महबूबा मुफ्ती को 13 अक्टूबर को रिहा करने के बाद से अब ये सियासतदां परेशान हैं कि उनके हाथ से राजशाही अब समाप्त हो चुकी है। जिसके लिए यह किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं, भले ही इन्हें देशद्रोही क्यों न कहा जाए। अब्दुल्ला परिवार इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं है कि अब उनके पास वह कश्मीर नहीं जिसे उन्होंने चार हाथों से लूट कर, जनता के हाथों में आतंकवादियों का सफाया करने वाली सेना पर हमला करने के लिये पत्थर थमाए, जिस पर कभी खुद ने तो कभी बेटे ने राज किया। अब उनके सामने ऐसा कश्मीर है जिसके पास कोई स्वतंत्र दर्जा नहीं है, जिसका कोई अलग झंडा नहीं है, जिसके पास 370 और 35ए के विशेष प्रावधान नहीं हैं। यह ऐसा कश्मीर है जो भारत के अन्य राज्यों की तरह है। जिसके दो भाग हो गए, एक जम्मू कश्मीर तो दूसरा लद्दाख। यह देखकर फारूक अब्दुल्ला परिवार विचलित है। यही कारण है कि फारूक अब्दुल्ला ने 23 सितंबर को द वायर टीवी के करण थापर को दिए इंटरव्यू में देशद्रोही बयानों से भी परहेज नहीं किया। इंटरव्यू  में  फारूख जितना जहर उगल सकते थे उन्होंने उगला। फारूक अब्दुल्ला कश्मीर में धारा 370 और 35ए बहाल करने की मांग करते हैं। इतना स्वार्थी और देशद्रोही नेता दुनिया के किसी भी देश में नहीं मिलेगा जो कहे कि “वह भारत को अपना देश नहीं मानते।“ फारूख कहते हैं "वे खुद को भारतीय नहीं मानते और ना ही भारतीय होना चाहते" यही नहीं वह यहां तक कहते हैं कि "कश्मीरी लोग भी अपने आप को भारतीय नहीं मानते और वह भारत के साथ नहीं रहना चाहते।" लगता है कई सालों तक राज करते हुए अब्दुल्ला खुद को ही कश्मीर मानने लगे। कश्मीरी जनता तो कल भी भारतीय थी और आज भी भारतीय है। हां ना तुम(अब्दुल्ला परिवार) पहले भारतीय थे और ना अब हो। तुम कल भी पाकिस्तानी थे और आज भी पाकिस्तानी हो और ऐसे देश विरोधियों से निपटना मोदी अच्छी तरह जानते  हैं। क्या कश्मीर के सियासतदां नहीं जानते कि भाजपा ने मुफ्ती के साथ मिलकर सरकार बना कर सारे सियासतदाओं को निपटा दिया है। 

फारूक अब्दुल्ला आगे कहते हैं  यदि ईमानदारी से कहूं तो मुझे हैरानी होगी, अगर उन्हें (सरकार को) वहां कश्मीर में कोई ऐसा शख्स मिल जाए जो खुद को भारतीय बोले।“ वे कहते हैं "आप जाइए और खुद बात कीजिए वे(कश्मीरी) खुद को भारतीय नहीं मानते और ना ही पाकिस्तानी। पिछले साल 5 अगस्त को उन्होंने (मोदी ने) जो किया वह ताबूत में आखिरी कील था। फारूख ने यह भी कहा "यह वहां के लोगों का मूड है क्योंकि कश्मीरियों को सरकार पर कोई भरोसा नहीं रह गया। विभाजन के वक्त घाटी के लोगों का पाकिस्तान जाना आसान था लेकिन तब उन्होंने गांधी के भारत को चुना, ना कि मोदी के भारत को।" वे आगे कहते हैं "आज चीन दूसरी तरफ से आगे बढ़ रहा है, अगर आप कश्मीरियों से बात करेंगे तो कई लोग चाहेंगे कि चीन भारत में आ जाए। जबकि उन्हें पता है कि चीन ने मुसलमानों के साथ क्या किया। मैं इस पर गंभीर नहीं हूं लेकिन मैं ईमानदारी से कह रहा हूं जिसे लोग सुनना चाहते हैं।" वस्तुतः फारूक अब्दुल्ला कश्मीरियों की आड़ लेकर अपने मन की बात कहते हुए लगते हैं। वे चाहते हैं कि चीन लद्दाख पर हमला कर दे और भारत उसमें हार जाए जिससे वह चीन की तरफदारी में कसीदे पढ़ने लगें। फारूख ने धारा 370 पर भी विवादित नजरिया रखा, उनका कहना है कि "एलएसी पर जो तनाव है उसका जिम्मेदार केंद्र का वह फैसला है जिसमें जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 को खत्म किया गया", उन्होंने कहा कि चीन ने अनुच्छेद 370 खत्म करने के फैसले का समर्थन नहीं किया है और हमें उम्मीद है इसे 370 को फिर से चीन की मदद से बहाल कराया जा सकेगा। वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनाव की जो स्थितियां बनी है वह 370 के अंत के कारण बनी हैं। चीन ने कभी इस फैसले को स्वीकार नहीं किया। हम उम्मीद करते हैं कि चीन की मदद से जम्मू कश्मीर में फिर अनुच्छेद 370 बहाल होगा। 5 अगस्त 2019 का 370 को हटाने का फैसला हम कभी स्वीकार नहीं कर सकते।" सच्चाई तो यह है अब्दुल्ला साहब कि तुम्हारे मानने या ना मानने से या तुम्हारे स्वीकार करने या ना करने से कुछ होना जाना नहीं है क्योंकि यह फैसला तुम ना तो कभी स्वीकार करोगे और ना ही यह फैसला बदला ही जाएगा। 

कुल मिलाकर नए कश्मीर से बौखलाए कश्मीर के अब्दुल्ला परिवार और  महबूबा मुफ्ती केंद्र सरकार के खिलाफ आंदोलन खड़ा करने के लिए साथ आ रहे हैं। यही कारण है कि जैसे ही 13 अक्टूबर को महबूबा मुफ्ती रिहा हुईं दोनों बाप बेटे उनके निवास पर पहुंच गए और सरकार के विरुद्ध रणनीति बनाने के लिए प्रतिबद्धता जताने लगे। 5 पार्टियों ने मिलकर गुपकार घोषणापत्र (गुपकार डिक्लेरेशन) तैयार किया। इस घोषणा पत्र के माध्यम से इन लोगों ने अलगाववाद का राग ही नहीं अलापा बल्कि धारा 370 की बहाली, जम्मू कश्मीर और लद्दाख के वर्तमान विभाजन को रद्द करने और प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग को लेकर सड़कों पर उतरने की चेतावनी दी है।

 वस्तुतः यह चेतावनी तो यूं ही खारिज कर दी जानी चाहिए। जब ये लोग स्वयं को भारतीय ही  नहीं मानते तो किस मुंह से धारा 370 बहाल करने की मांग कर सकते हैं। जब यह लोग भारत के दुश्मन चीन की मदद से बहाली की बात करते हैं तो इन्हें यही करना चाहिए। देखते हैं किसमें कितना दम है। जम्मू कश्मीर के सियासतदानों को समझ लेना चाहिए कि यह मोदी सरकार है। यदि शांत नहीं रहे तो अभी तो 13 महीने के लिए अंदर किया था पता नहीं आगे इतिहास में दर्ज शेख अब्दुल्ला की तरह 10 सालों तक अंदर रहना पड़े।

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शनिवार, 3 अक्तूबर 2020

मोदी ऐसी शख्सियत हैं जिन्हें कोई इग्नोर नहीं कर सकता

 

           मोदी  ऐसी शख्सियत हैं जिन्हें कोई इग्नोर नहीं कर सकता

                (टाइम मैगजीन मोदी पर हमेशा विरोधाभासी सामग्री छापती है)

                            


डॉ हरीकृष्ण बड़ोदिया

       पिछले सप्ताह दुनिया की सर्वाधिक लोकप्रिय राजनीतिक मैगजीन ‘टाइम’ ने दुनिया के सबसे प्रभावशाली 100 लोगों की सूची प्रकाशित की। इसे उसकी मजबूरी कहें या तटस्थ मूल्यांकन कि 2014 से अब तक लगातार पत्रिका कभी कवर पेज पर तो कभी प्रमुखता से भारत के प्रधानमंत्री मोदी को बराबर स्थान देती आई है। अब तक उसने मोदी को चार बार दुनिया के प्रभावशाली लोगों की सूची में शामिल किया है। पिछले सितंबर महीने में उसने मोदी को चौथी बार विश्व की प्रभावशाली शख्सियत निरूपित किया, लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि हर बार ‘टाइम’ को मोदी में कमियां ढूंढने की लत पड़ गई है। हालांकि यह पत्रिका मोदी को भारत के प्रधानमंत्री बनने से पहले गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में भी विशेष महत्व देती रही है। यही कारण है कि ‘टाइम’ पत्रिका मोदी को कभी इग्नोर नहीं कर सकी। लेकिन विशेष बात यह है कि जहां एक ओर पत्रिका मोदी में विशेषताओं के दर्शन करती है वहीं उनमें जानबूझकर ऐसी कमियों का उल्लेख करती है जो मोदी की कार्यप्रणाली से मेल नहीं खातीं। इस तरह का विरोधाभास जिसमें किसी व्यक्ति को एक ही समय में दुनिया का प्रभावशाली बताते हुए उसकी उसी समय अनावश्यक आलोचना भी करे यह केवल ‘टाइम’ ही कर सकती है।

      उदाहरण के लिए 2012 में टाइम मैगजीन ने जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब अपने कवर पेज पर लिखा था 'मोदी मींस बिजनेस' अर्थात मोदी का मतलब व्यापार है, जिसका आशय मोदी एक व्यापारी हैं। इस हेड लाइन के नीचे पत्रिका ने मोदी की योग्यता पर प्रश्न करते हुए छोटे अक्षरों में लिखा 'बट कैन ही लीड इंडिया, अर्थात क्या मोदी देश का नेतृत्व कर सकते हैं? लगता है निश्चित ही पत्रिका ने 2012 में इस संभावना को भांप लिया था कि आने वाले वक्त में मोदी देश का नेतृत्व कर सकते हैं। तभी उसने यह प्रश्न उछाला था, क्या मोदी देश का नेतृत्व कर सकते हैं? पत्रिका ने जब प्रश्न किया था तब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। आज वे देश के विगत 6 वर्षों से अधिक से प्रधानमंत्री हैं और दुनिया जानती है कि मोदी ने भारत को गौरवान्वित कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आज दुनिया के महत्वपूर्ण देशों से भारत के अच्छे संबंधों के पीछे मोदी की कार्यप्रणाली और बेखौफ नेता की छवि है। 2014 के चुनावों में जब उन्होंने एनडीए के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली तब भी विश्व स्तर पर यही अनुमान था कि एक राज्य का मुख्यमंत्री होना और देश का प्रधानमंत्री होना दोनों में बहुत अंतर है, और क्या मोदी देश का नेतृत्व कर पाएंगे। लेकिन सारी आशंकाएं फिजूल साबित हुईं और मोदी ने देश का नेतृत्व पिछले सभी प्रधान मंत्रियों की तुलना में अच्छा किया, जिसका लोहा आज दुनिया मान रही है।

       टाइम मैगजीन ने 2015 में फिर विरोधाभासी मूल्यांकन किया। टाइम के कवर पेज पर फिर एक बार मोदी थे, जिसमें लिखा गया था 'व्हाय मोदी मैटर्स' अर्थात मोदी इतने महत्वपूर्ण क्यों हैं। लेकिन इसी के नीचे पत्रिका ने लिखा कि 'कैन ही डिलीवर' क्या वे अच्छा काम कर पाएंगे? अर्थात पत्रिका को हमेशा आशंका बनी रही कि मोदी देश का नेतृत्व करने में सक्षम होंगे या नहीं। लेकिन मोदी ने 2014 के बाद लगातार 2019 के चुनावों से अब तक न केवल देश का नेतृत्व किया बल्कि वैश्विक आतंकवाद के नाश में उन्होंने दुनिया का नेतृत्व किया। उनके वैश्विक नेतृत्व का परिणाम ही है कि आज समूचा विश्व आतंकवाद और आतंकवादी देशों के खिलाफ एकजुट है। पिछले साल टाइम पत्रिका ने अपने कवर पेज पर मोदी के फोटो के नीचे लिखा 'इंडियाज डिवाइड इन चीफ' अर्थात भारत को बांटने वाला प्रमुख और इसी के नीचे छोटे अक्षरों में लिखा गया 'मोदी द रिफॉर्मर', मोदी एक सुधारक। कहने का तात्पर्य यही है कि टाइम मैगजीन मोदी की गंभीर आलोचना करती है किंतु उनमें इतनी संभावनाएं देखती है कि पत्रिका उन्हें इग्नोर नहीं कर पाती। 'इंडियाज डिवाइडर इन चीफ' एक भारतीय पत्रकार तवलीन सिंह और पाकिस्तानी नेता व कारोबारी सलमान तासीर के बेटे आतिश तासीर ने लिखा था। आतिश तासीर की पृष्ठभूमि और उनकी पाकिस्तान के प्रति निष्ठा को देखकर यही उम्मीद की जा सकती थी कि वह मोदी को देश बांटने वाला प्रमुख ही निरूपित कर सकते थे। लेकिन इसके विपरीत इसी पत्रिका ने एक लेख में 'मोदी हैज यूनाइटेड इंडिया लाइक नो प्राइम मिनिस्टर इन डिकेड्स' बताया अर्थात मोदी ने भारत को जितना एकजुट किया उतना दशकों में किसी प्रधानमंत्री ने नहीं किया।

     इस बार टाइम मैगजीन ने पुनः सितंबर में मोदी को अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ दुनिया के सबसे प्रभावशाली लोगों में शामिल किया। लेकिन उसके संपादक कार्ल  विक ने मोदी की आलोचना करते हुए लिखा "लोकतंत्र की विशेषता इसमें होने वाले स्वतंत्र चुनाव नहीं हैं, वे तो सिर्फ यह बताते हैं कि सबसे ज्यादा वोट किसे मिले। ज्यादा महत्वपूर्ण उन लोगों के अधिकार हैं जिन्होंने जीतने वाले के पक्ष में वोट नहीं किया। भारत पिछले 7 दशकों से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यहां की 1.3 अरब लोगों की आबादी में ईसाई, मुस्लिम, सिख, बौद्ध, जैन और कई अन्य धर्म के लोग रहते हैं। सभी भारत में स्वीकार्य रहे हैं, जिसका दलाई लामा भी शांति और स्थायित्व का उदाहरण बताते हुए तारीफ करते हैं।“ लेकिन लेख में मोदी को मुसलमानों के खिलाफ बताते हुए लिखा कि “भारत के लगभग सभी प्राधान मन्त्री  80% हिंदू आबादी से ही रहे हैं। लेकिन सिर्फ मोदी ने ही इस तरह से शासन किया है जैसे कोई और मायने नहीं रखता। पहले उनका चुनाव सशक्तिकरण जैसे लोकप्रिय वादे पर हुआ। उनकी राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी ने ना सिर्फ उत्कृष्टता बल्कि विशेष तौर पर भारत के मुस्लिमों को निशाना बनाकर बहुलतावाद को भी अस्वीकार कर दिया। मुस्लिम समुदाय नरेंद्र मोदी की हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी बीजेपी के निशाने पर रहा।"  जबकि सच्चाई बिल्कुल इसके विपरीत है। मोदी ना तो  डिवाइडर इन चीफ हैं और ना बीजेपी मुस्लिम विरोधी है। असल में देश के मुसलमानों में विश्वास का संकट है। वे मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में अब तक स्वीकार नहीं कर पाए, जबकि 2014 के बाद से ही मोदी देश में 'सबका साथ, सबका विकास' की बात करते रहे हैं। वे मुस्लिम बच्चों की तरक्की के लिए कहते हैं कि उन्हें बदलना होगा, वे तब तक मुख्यधारा में शामिल नहीं हो सकते जब तक उनके एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में कंप्यूटर ना हो। सच्चाई तो यह है कि मोदी ने जो कठोर कदम उठाए वह भारत की एकता और अखंडता के लिए जरूरी थे। अब यदि इन्हें मुस्लिम तबका अपने ऊपर आघात माने तो यह उसकी मर्जी है। उदाहरण के लिए कश्मीर से धारा 370 को हटाना या मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से मुक्ति जैसे कानून देश के लिए आवश्यक और बेहतरी के लिए हैं। दूसरी ओर नागरिकता संशोधन कानून जिसके अंतर्गत विदेशों में प्रताड़ित गैर मुस्लिमों को भारत में नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान किया गया जिसका भारत के मुसलमानों से कोई संबंध नहीं है उसे भी भारतीय मुसलमानों ने अपने विरुद्ध माना। यही नहीं जितनी भी जन कल्याण की योजनाएं हैं उनमें भारत में किसी संप्रदाय से कोई भेदभाव नहीं है। वे सारी सुविधाएं और लाभ जो अन्य को मिलते हैं, देश के मुसलमानों को भी मिल रहे हैं। तो भी देश का मुसलमान संतुष्ट नहीं है, और उसका प्रमुख कारण यह है कि देश के प्रधानमंत्री मोदी तुष्टीकरण में विश्वास नहीं करते। जिसकी पीड़ा मुस्लिम संभ्रांत वर्ग और कट्टरपंथीयों को अधिक है। जिसकी वजह से उनकामोदी विरोध स्थाई हो गया है। इस विरोध को देश ने शाहीन बाग प्रदर्शन में देखा जिसने शाहीन बाग के कई किलोमीटर क्षेत्र की जनता के जीवन को अस्त-व्यस्त और त्रस्त कर दिया था। जिस प्रदर्शन की 82 वर्षीय दादी बिलकिस वानो को टाइम ने प्रभावशाली लोगों की सूची में मोदी के साथ ही शामिल किया है। क्या यह नहीं माना जाए कि टाइम ने भी गैरकानूनी धरने प्रदर्शन को मान्यता देकर देश के नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने वालों को महिमामंडित करने का काम किया है। मोदी की प्रशंसा के साथ गंभीर आलोचना से किसी को कोई आपत्ति नहीं किंतु देश की एकता और अखंडता को सोची समझी रणनीति के तहत हानि पहुंचाई जाए तो लगता है कि विदेशी मीडिया भी भारत के टुकड़े टुकड़े गैंग की भाषा बोल रहा है। लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि ऐसे प्रयत्नों का ना तो मोदी की सेहत पर कोई असर पड़ता है और ना जनता में उनकी छवि धूमिल होती है और ना कभी होगी। कौन नहीं जानता कि देश के एकजुट विपक्ष के सारे प्रयत्न और प्रचार के बाद भी 2019 में मोदी ने दोबारा बहुमत पाया। मोदी ने 2014 में 'सबका साथ, सबका विकास' नारा दिया था और 2019 में चुनावों में सफलता के बाद नारा दिया 'सबका साथ, सबका विकास और सब का विश्वास'। वस्तुतः यह केवल नारा नहीं बल्कि मोदी का देश के हर नागरिक को आश्वासन है। अब यह लोगों पर निर्भर करता है कि वे विश्वास करते हैं या नहीं।  

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