रद्दी हुए झंडे को भूल तिरंगे का सम्मान करना सीख लो मोहतरमा
डॉ. हरिकृष्ण बड़ोदिया
भाजपा ने 2015 में मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीडीपी से साझा
न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाई थी, तब ना केवल
राजनीतिक पंडितों को आश्चर्य हुआ था बल्कि देश की विपक्षी पार्टियों ने भी भाजपा
की आलोचना की थी। उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि सत्ता के लिए भाजपा
अपने मौलिक लक्ष्यों से भटक चुकी है। जब फरवरी 2015 में जम्मू
कश्मीर में मुफ्ती मोहम्मद सईद को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई थी तब मुफ्ती
साहब ने अपने पहले बयान में कहा कि ‘वे राज्य में
विधानसभा चुनाव की सफलता के लिए पाकिस्तान, हुर्रियत और आतंकवादियों के शुक्रगुजार
हैं जिनकी वजह से चुनाव सफलतापूर्वक हो पाए', उन्होंने कहा 'अगर आतंकवादी
घटनाओं को अंजाम देते या फिर पाकिस्तान सीमा पार से गोलीबारी करता तो चुनाव के लिए
बेहतर माहौल राज्य में नहीं बन पाता।' यह ऐसे बयान थे जिनसे मुफ्ती मोहम्मद सईद की
पाकिस्तान परस्ती और आतंकवादियों के प्रति हमदर्दी स्पष्ट होती है। सबसे बड़ा अचरज
तो इसी बात का था कि भाजपा जैसी दक्षिणपंथी, राष्ट्रवादी और आतंकवाद की कट्टर
विरोधी,
हुर्रियत
और पाकिस्तान के
विरुद्ध कठोर रुख रखने वाली पार्टी ने कैसे मुफ्ती के साथ सरकार बनाना स्वीकार
किया। निश्चित ही इसके पीछे जहां एक ओर जम्मू कश्मीर में जम्मू के प्रतिनिधित्व को
महत्व दिलाना था वहीं एक ऐसा प्रयोग था जो सफल होता तो ठीक नहीं
होता तो भाजपा पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ना था। भाजपा नहीं चाहती थी कि नेशनल
कांफ्रेंस और पीडीपी मिलकर सरकार में कट्टरवादी आतंकवाद के दो समर्थक एक साथ
जम्मू-कश्मीर की जनता को हानि पहुंचाते। वहीं आज लगता है कि भाजपा सरकार में रहकर
भविष्य में लागू की जाने वाली उसकी नीतियों के संदर्भ में अनुसंधान कर रही थी जो
हमें बाद में समझ आता है। कौन नहीं
जानता कि जम्मू-कश्मीर के दो सियासी परिवार अब्दुल्ला और मुफ्ती के बिना कश्मीर
में सियासत की कल्पना नहीं की जा सकती थी और यही सच भी था। यह दोनों दल और इनके
नेता सत्ता में रहते हुए एक दूसरे के बहुत बड़े आलोचक हैं। किंतु हुर्रियत,
आतंकवाद और
पाकिस्तान के अपने स्तर पर कट्टर समर्थक हैं। लेकिन जब एक दल सत्ता में होता है तो
दूसरा दल सत्ताधारी दल की आलोचना से कभी पीछे नहीं हटता। यही कारण था कि जब मुफ्ती
मोहम्मद सईद ने पाकिस्तान और हुर्रियत और आतंकवादियों की वजह से जम्मू कश्मीर में
चुनावों की सफलता में कसीदे पढ़े तो उमर अब्दुल्ला ने आलोचना करते हुए कहा कि ‘कश्मीर
की कौम के लिए पाकिस्तान और आतंकी कभी अच्छे नहीं हो सकते और जो लोग ऐसा सोचते हैं
उनकी सोच भी सोच का विषय है।’ बयान की दृष्टि से लगेगा कि नेशनल कांफ्रेंस
पाकिस्तान और आतंकवाद के खिलाफ दिखाई दे रही है लेकिन यह दोनों दल सुविधा की
राजनीति करने वाले जम्मू कश्मीर के शातिर खिलाड़ी हैं।
वस्तुतः
भाजपा ने फरवरी 2015 से जम्मू कश्मीर में मुफ्ती मोहम्मद सईद के
नेतृत्व में सरकार चलाई। दुर्भाग्यवश 7 जनवरी 2016 को मुफ्ती मोहम्मद सईद का निधन हो गया और
जम्मू कश्मीर में दोबारा सरकार बनाने की जरूरत आ पड़ी। तब
भी समीकरण वही
थे। सूत्र पीडीपी और बीजेपी के पास ही थे। बहुत लंबे विचार विमर्श के बाद 4
अप्रैल 2016
को महबूबा
मुफ्ती ने 13वे मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। इस सरकार के
गठन में भाजपा के जम्मू कश्मीर प्रभारी राम माधव की बड़ी भूमिका थी। इस गठबंधन से
सबसे ज्यादा परेशान कांग्रेस थी जिसने इसे ‘अपवित्र गठबंधन’ निरूपित किया था।
वस्तुतः राज्य की जो स्थिति मुफ्ती मोहम्मद सईद के समय थी वही स्थिति मेहबूबा के
समय रही। वही पाकिस्तान का समर्थन, आईएसआईएस के झंडे,
पाकिस्तान के
झंडे,
सेना पर
पत्थरबाजी और आतंकवादियों का समर्थन ऐसी स्थितियां थीं जिनसे भाजपा का नेतृत्व
पीड़ा तो महसूस करता था लेकिन गठबंधन धर्म के कारण बोल नहीं पाता था। महबूबा के
हठधर्मी नेतृत्व ने भाजपा के नेताओं को असहज कर दिया था लेकिन भाजपा किसी बड़े
उद्देश्य के तहत उन की नाफरमानियों को बर्दाश्त कर रही थी। महबूबा भी अब्दुल्ला
परिवार की तरह पाकिस्तान से प्रेम और भारत से नफरत करने वाली राजनेता हैं। इनका छद्म
भारत प्रेम सही मायनों में दिखावा है क्योंकि समय-समय पर दिए गए इनके बयान इस बात
की पुष्टि करते हैं कि दोनों परिवार खुदगर्ज और अब्बल दर्जे के देशद्रोही हैं।
कश्मीर में वर्तमान सरकार की पाकिस्तान के संदर्भ में जीरो टॉलरेंस नीति से यह
खासे परेशान रहते रहे। ये हमेशा पाकिस्तान से वार्ता की वकालत करते रहे। जब केंद्र
की मोदी सरकार ने अचानक महबूबा मुफ्ती की सरकार से समर्थन वापस ले लिया तो यह सकते
में आ गईं। तब इनके दोगले चेहरे उजागर होने शुरू हो गए। अप्रैल 2019
में उन्होंने
भारत को धमकी देना शुरू कर दिया। एक बयान में महबूबा ने कहा ‘भारत ने परमाणु बम
दिवाली के लिए नहीं रखा है उसी तरह पाकिस्तान ने भी इसे ईद के लिए नहीं रखा है।‘
स्पष्ट है कि
जिस तरह की बकवास और परमाणु बम की धमकी पाकिस्तान के हलकट मंत्री भारत को देते
रहते हैं उसी तरह महबूबा मुफ्ती ने भी बयान दिया। पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान
की तरफदारी करते हुए महबूबा ने कहा ‘इमरान खान नए हैं और उन्हें एक मौका देना
चाहिए।‘ स्पष्ट करता है कि इतनी बड़ी आतंकी घटना को भी नजरअंदाज करते हुए भी वे
पाकिस्तान से प्रेम दिखा रही थीं। जब भाजपा ने मेहबूबा से समर्थन वापस लिया और
जम्मू कश्मीर में राज्यपाल नियुक्त हुए तब अब्दुल्ला परिवार और महबूबा मुफ्ती को
लगभग आभास होने लगा था कि भाजपा नीत एनडीए कश्मीर में कुछ बड़ा करने जा रही है।
यही कारण था कि दोनों दलों ने केंद्र सरकार का विरोध करना शुरू कर दिया। धारा 370
और 35ए को हटाने के
संदर्भ में महबूबा ने धमकी देते हुए कहा 'पहले से ही जम्मू-कश्मीर बारूद के ढेर पर
बैठा है यदि ऐसा होता है तो न केवल कश्मीर बल्कि पूरा देश जल उठेगा इसलिए मैं
बीजेपी से अपील करती हूं कि वह आग से खेलना बंद कर दें।'
स्पष्ट है कि
महबूबा ने अपनी तरफ से सरकार को डराने की पूरी कोशिश की। यही नहीं उमर अब्दुल्ला
ने कहा 'धारा 370
हटाई तो कश्मीर
भारत का हिस्सा नहीं रहेगा इसे हटाने का काम केवल संविधान सभा कर सकती है जिसने
इसे विशेष रियासत बनाया'। अलगाववादी जेकेएलएफ के चीफ यासीन मलिक ने
कहा 'यदि धारा 370
हटाई तो जम्मू
कश्मीर में आग लग जाएगी कश्मीर जल उठेगा'। वस्तुतः जितने भी नेता इसका विरोध करते थे
वह सब अंदर से डरे हुए थे क्योंकि वे जानते थे कि धारा 370
हटाना भाजपा का
कोर इशु रहा है और जो संकल्प वह लेती है उसे जरूर पूरा करती है। आखिर में 5
अगस्त 2019
को वह शुभ दिन
आया जब संसद ने धारा 370 और 35ए से जम्मू कश्मीर को मुक्त करा दिया और
जम्मू कश्मीर के बड़े नेताओं और अलगाववादियों को एहतियात के तौर पर शांति व्यवस्था
बनाए रखने के लिए नजरबंद या गिरफ्तार कर लिया। यही नहीं जम्मू कश्मीर की इंटरनेट
सेवाएं स्कूल और संस्थाएं एहतियातन बंद कर दिए गए।
किसी गंभीर स्थिति को सामान्य होने में वक्त लगता है। जम्मू कश्मीर में
सेवाएं बहाल की गईं तब तक लगभग 1 साल पूरा हो गया था। धीरे-धीरे नजरबंद नेताओं
को रिलीज किया गया। पहले अब्दुल्ला पिता पुत्र और बाद में 13
महीने बाद
महबूबा मुफ्ती को रिहा किया गया। बौखलाए ये नेता भारत विरोध में
चिल्ला रहे हैं। अब्दुल्ला जहां एक ओर चीन की मदद से 370
बहाल कराना
चाहते हैं तो महबूबा ने कहा ‘ 370 की बहाली तक तिरंगा हाथ में नहीं लूंगी।
तिरंगे से हमारा संबंध जम्मू कश्मीर के झंडे की वजह से है, जब तक 370
बहाल नहीं होता,
जम्मू कश्मीर को
उसका पुराना स्टेटस नहीं मिलता चुनाव नहीं लडूंगी।' केंद्र सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा 'चोर डाकू कितना
ही बड़ा और खूंखार हो मगर जब वह डाका डालता है तो उसको वह माल लौटाना पड़ता है। 5
अगस्त को डाका
डाला गया वह किसी कानून के तहत नहीं हुआ। इनके हाथ में तो वह ताकत नहीं कि 370
और 35ए छीन सकें। मैं
लोगों को यकीन दिलाना चाहती हूं कि छीनी हुई चीज लोगों के पास वापस आ जाएगी।‘ सच्चाई
यही है कि इनके भड़कने या गुपकार गुट बना लेने से धारा 370
बहाल होने से
रही। जम्मू कश्मीर में इन सब का विरोध करते हुए 26 अक्टूबर को पूरी कश्मीर में देशभक्त लोगों ने
प्रदेश में तिरंगा फहरा कर स्पष्ट कर दिया कि जो प्रावधान खत्म किए गए वह बहाल
नहीं होंगे। वस्तुतः अब इन दोनों सियासी परिवारों की राजनीति खत्म हो गई है। यह
यदि भारत के कश्मीर राज्य में भारत के नागरिक बनकर राजनीति करेंगे तो इनका स्वागत
होगा अन्यथा अलगाववादियों की तरह इन्हें भी भारतीय कानून के तहत बहुत बड़ी कीमत
चुकानी पड़ेगी। इन्हें पुरानी तथाकथित जम्मू कश्मीर रियासत के रद्दी झंडे को भूलना
होगा और तिरंगे का सम्मान करना होगा। अब कश्मीर में बदलाव दिखाई देने लगा है।
पीडीपी के तीन वरिष्ट नेताओं क्रमशः टीएस बाजवा, वेद महाजन और हुसैन अली
बाफरा ने महबूबा के तिरंगे के अपमान वाले
बयान पर पार्टी से इस्तीफा देकर बता दिया कि वे देश विरोधी महबूबा के साथ नहीं रह
सकते।
सेवा निवृत
प्राध्यापक (समाजशास्त्र),
131/2 एम.बी.नगर, रतलाम (मप्र) 457001
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